सुनो पुरुष..
सुनो पुरुष….
मैं नहीं चाहती..
तुम बचाओ मुझे..
बस लोलुप ना बनो!
रक्षा करो मेरी..
बस भक्षक ना बनो!
कांटे चुनो मेरी राह के..
बस काँटे ना बिछाओ!
फूल बिछाओ मेरी राह में.. बस पत्थर ना चुनो!
हर मुश्किल काम खुद करो.. ! मौके दो हमें भी!
आसान सी राह दो मुझे..
मेरे पंखों को भी मजबूती दो! मुझे नहीं निकलना है,
तुम से आगे आगे..
मैं चाहती हूं,
बस इतना..
कि तुम,
साथ-साथ चलो!
मैं सशक्त हूं स्वयं!
तुम सिर्फ राह न रोको मेरी मेरी राह में कांटे न बुनो
रोको मत मुझे,
आजमाने से खुद को!
लड़ने दो मुश्किलों से…
और हो सके तो..
थोड़ी हिम्मत बढ़ाओ,
विश्वास करो मुझ पर.
और हो सके तो..
थोड़ा और जगा दो..
बढ़ा दो विश्वास!
बस कह दो इतना सा..
जाओ नहीं रोकूंगा मैं तुम्हें..
छू लो तुम..
अपना निजी आसमान! निखार लो अपना..
चट्टान सा व्यक्तित्व!
क्योंकि हम दोनों हैं समर्थ! सशक्त! पूर्ण!
बस इतना ही समझाना है..
तुम्हें !
— अंजू अग्रवाल ‘लखनवी’