चाँद मेरी आँखों में
बिना करवट बदले वह रात रात भर टकटकी लगाये जागता रहता है । बिना कुछ बोले,, बिना फुसफुसाए अपने गगनचुम्बी घर के मनपसन्द झरोखे पर बैठकर आंखों आंखों पर पसराई हुई नींद और उनमें समाये स्वप्नों की मौन पहरेदारी करता हुआ हर रोज ही दिखता है मुझे।
शायद संसार की प्रथम चरण की अर्धजागृत निद्रा के टूट जाने का भय सताता होगा उसे। क्योंकि शायद यह नींद की वह अवस्था है जब दिन के उजालों में नमी खोकर टूट बिखर गए स्वप्नो को पुनः जोड़ने की भूमिकाएं तैयार होती हैं ।और अपनी संवेदनशील प्रकृति के अनुसार निश्चित ही वह उन अनगिनत स्वप्नों की पूर्णता हेतु चौतरफा यूँ ही अनुकूल वातावरण निर्मित करने का प्रयास हर दिन करता होगा ।
समूचे प्राणिक संसार के लिए कितनी दया कितनी करुणा भरी है उसके हृदय में उतनी ही गहरी संवेदना व उदारता भी, शायद आप जानते हो ये उदारता किसी व्यक्ति को शनैः शनैः कितना सहिष्णु बनाती जाती है ।
समभाव संवेदना का जीता जागता उदाहरण ही दीखता है मेरा चाँद मुझे।अंबर की अनछुई ऊंचाईयों पर बैठकर ,दूर दूर जहां तक भी उसकी परमार्थी दृष्टि जाती है वह सपनो को संजोने के कर्म में ही तल्लीन दिखता है ।
हम मानवों की प्रकृति की तरह एक ही कर्म में निरन्तर संलिप्तता बनी रहने से उत्पन्न हो जाने वाली ऊब तो रंच मात्र भी नज़र नही आती उसमें। गगन पर उपस्थित होने से अस्ताचल तक जाने के पथ से क्षण भर को भी विमुख नही होते नही पाया उसे ।
समूचा प्राणिक संसार जैसे उसका अपना परिवार हो, किसी प्रिय का कोई नन्हा सा स्वप्न भी, अकारण न टूट जाये इसके लिए ही वह युगों से मौनव्रत धारण किये नभ की खिड़की पर आकर टिक जाता है । फिर वह कोई भी ऋतु हो कोई भी दिन अथवा वार उसकी उपस्थिति मात्र ही सब कुछ जो यहाँ तप्त और त्रस्त है शीतल और श्रांत कर जाती है।
लिंग भेद से इतर समय समय पर उसके अलग अलग रूप आकार प्रकार दिखते हैं मुझे ।भले ही यह प्राणि जगत उसे पुल्लिंग की श्रेणी में रखकर सम्बोधित करता हो किन्तु मुझे तो वह सदा से स्त्रीत्व जीता हुआ ही दिखा है । झीना नील परिधान झिलमिल सा आँचल उढाए हृदय से लगाकर अपने शिशु के मस्तक पर शीतलता का स्पर्श कराता नेह भरी थपकियाँ देता हुआ सा।
दिन भर उजालों के ज्वलंत कार्यभार और उनकी चौतरफा मार से चोटिल आहत व लहुलुहान हुए सपनो को चुन बीन कर थके हारे तनमन को वह इस अल्प निद्रा से मिलवाने में मध्यस्थता बखूबी करता आया है तकिये की झालरों पर चाहतों के गोटे टांकने की अथक व्यवस्थाऐं बनाते कितनी ही बार मिला वह मुझे । ताकि उसकी शीतल उपस्थिति में निराश मन फिर से ऊर्जावान होकर अपनी चाहतों से गले मिल सके और उन्हें पलकों से बाहर उतार उनसे सीधे साक्षत्कार कर सकें।
सपनो की अपनी अलग शांत और सौहार्द्रपूर्ण दुनिया है जहां मेरा तेरा छोटे बड़े का कोई झगड़ा फसाद नही होता सभी एक दूसरे में मिले हुए होकर भी पृथक अस्तित्व रखने वाले दोनो आँखों के भीतर रहते हुए बराबर आपस में सामंजस्य बिठाए रहते है ।
वस्तुतः मन को जो भी प्रिय है उसी से साक्षात मिलन की मधुबनी भूमि से युति कराती है यह अल्पनिद्रा। जागृति के लिए चेतना को अल्प निद्रा देने से इच्छाओं की जड़ों को कदाचित समुचित उर्वरा मिल जाती है।
उसे कभी एक रूप एक आकार में नही देखा मैनें, घट बढ़ तो उसके साथ सदा से बनी रही है ,जिस प्रकार अपूर्णता को साथ लेकर भी वह पूर्ण अभिव्यक्त हो सकने का नित्य अभ्यास करते हुए विजयी होता रहा है ठीक वैसी ही प्रेरणा देने का मूक प्रयास भी करता रहता है । कदाचित कभी वह पूर्णाकार भी हो जाये और जगत उसके इस रुप को देख उत्सव भी मनाए तब भी वह कभी अभिमानी नही होता । उसकी दृष्टि कभी कुदृष्टि नही बन पाती ।
विज्ञान उसे दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित ग्रह,परजीवी, उपग्रह कुछ भी कहे ।ज्योतिष शास्त्र में वह जीवन कुंडली तथा मानव मन का कारक ग्रह बने या साहित्य की भाषा में धरती के कण कण का प्रेमी । इससे उसके कर्तव्य के बोध पर रंच मात्र भी सकारात्मक या नकारात्मक असर नही होता। उसे अपने होने का प्रबल अहसास है इसी एक सत्य को सहज स्वीकार कर लेने के कारण वह कभी पथभृष्ट नही होता।
फिर उसके बहुमंजिला निवास की अटारी पर बादल घिरे या बरखा वह क्षितिज की मुंडेर पर रखी सांझ की सीढ़ी पर चढ़कर उषा को उसके नियत कार्य समझाते हुए अल्प विश्राम को निकल जाता है ।
उसकी ममता भरी गोद मे सर रखकर कोमल थपकियों से अलसा आई आँखों मे सपनो का आना जाना अनवरत लगा रहे ।अन्यथा जीवन मे जीवेषणा और उसमें निहित कल्पनाशीलता लुप्त ही हो जाएगी और किसी भी विलुप्त हो गयी प्रजाति को मानवीय संसार में पनपी कोई भी विद्या विज्ञान नीति अथवा राजनीति उसके स्वाभाविक रूप में पुनः वापस नही ला सकी है ।
— प्रियंवदा अवस्थी