नारी जीवन (रिश्तों का ताना बाना )
नारी जीवन होता शायद कुछ रिश्तों का ताना- बाना
इसके इतर पुरुष-नारी के सम्बन्धों को कब जग माना
त्याग,धरम, अनुशासन, लज्जा बचपन से हर कोई सिखाता
कुछ अपनो की खुशियों खातिर नारी का बचपन मुरझाता
समझ न पाता फिर भी कोई उस के मन का दुखद फ़साना
इसके इतर पुरुष नारी के सम्बन्धों को कब जग माना
बात बनाती क्षण भर को भी गर सखियों के सँग मुस्काती
पुरुष मित्र से मिलकर आती इस जग में कुल्टा कहलाती
पल भर में सौ उँगली उठतीं शक के घेरे में आ जाना
इसके इतर पुरुष नारी के सम्बन्धों को कब जग माना
हर अपने की सेवा करती सबके मन की सुनती जाती
अर्पण करती जीवन अपना पीड़ा अपनी नहीं सुनाती
निज सम्मान गँवाकर पड़ता कुछ कसमों का मोल चुकाना
इसके इतर पुरुष नारी के सम्बन्धों को कब जग माना
नारी जीवन होता शायद कुछ रिश्तों का ताना बाना
इसके इतर पुरुष नारी के सम्बन्धों को कब जग माना।।
— अनामिका लेखिका