कफस में कनेरी
जाल बिछाया छलिया अहेरी,
कहां समझ पाई मैं नन्ही कनेरी?
देकर मुझे अधम ने प्रलोभन,
छीन लिया मेरा उन्मुक्त गगन।
हो गई कफस में कैद,
मां मैं ,झर – झर बहे मेरे नैन।
ना भर सकती ,नभ में स्वच्छंद उड़ान,
दफन हो गए ,क्षितिज के अरमान। कहते
सुना, पीली कनेरी सुन्दर गान,
मां क्रंदन में ना निकलते मधुर तान।।
क्यों किया कफस में कैद?
क्या थी मां हमसे बैर?
बंद कफस में ना फैलते पंख,
निराश हो जाता ये पुलकित मन।
विरह वेदना किसे बताऊं?
मौन रुदन कर खुद को समझाऊं।
मान लिया है इसे ही नसीब,
दुआ है ना मिले, ऐसी जिन्दगी कभी।
आज़ादी की कभी दरख़्वास्त ना की,
इनकी ख़ुशी में जिन्दगी कुर्बान कर दी।
देते हैं मुझे सब दाना पानी,
उदास स्वर में ही पड़ती है गानी।
ना आना मां तू इधर कभी,
वरना हो जाएगी कैद तू भी।
ढूंढ़ती हूं तुझे मैं भर – भर नैन,
विचलित मन रहता बेचैन।
मां मैं ,हो गई कफस में कैद ,
नन्ही कनेरी है कफस में कैद।।
— स्वाति सौरभ