सपना
कैसे पकडू धूप को ,
कैसे करुं रौशन जहाँ !
बन्द मुठठी में भी जलन का अहसास है।
समुद्र की गहराई इतनी ,
फिर भी खा जाती हैं
मछलियां शीप को।
चीटियाँ कैसे पहाडो को ,
पार कर जाती यहाँ.
लोग अपने आप से ही
हार जाते है यहाँ !
खर्च दी जिन्दगी ,
लोगों ने इस जहाँ के वास्ते ,
ये जहाँ फिर भी मुकम्मल न हुआ
दो राहों पे खड़े हैं
लोग अपना अपना सोचते
कैसे सम्हालू उस भूख को
बढ़ने लगी जो हर चीज की ?
न किसी के दर्द का अहसास “है “यहाँ ,
सबको अपनी भूख मिटाने की है, पड़ी
कम नही होती ये पीड़ा,
लोग सोते भूखे फुटपात पर !
कौन जानता है ये भी एक जहाँ है
न है तन पे कपडे ,
न उनकी की भू ख का अहसास है!
उनमें शामिल होने की न कोई होड बड़ी ।
दे उन्हें भी शहर में जगह
जीवन जीने की आस
उनकी भी बड़ी
— शिखा सिंह