फूलों पर ओंस बन
नयनों की मूक भाषा बन
अधरों की मुस्कान बन
इशारों के संकेत बन
खिल उठता प्रेम।
मौसम की बहारों पर चल
मंदिरों के आँगन चल
पेड़ों के सहारे चल
प्रतीक्षालय के तले चल
खिल उठता प्रेम।
मोबाइल के संग
बाजारों की दुकानों के संग
त्योहारों के संग
किसी बहानों के संग
खिल उठता प्रेम
ढाई आखर प्रेम।
— संजय वर्मा ‘दॄष्टि’