लोकतंत्र की बदसूरती बढ रही
बदसूरत बन रहा लोकतंत्र हमारा,
धनबल,जांच, इसको देता सहारा !!
चुनकर आते हैं जिसके विरोध में,
फिर भी सरकार बनाते गतिरोध मे!!
प्रतिनिधियों को छुपाना पड़ता है,
विरोधियों को गले लगाना पड़ता है!!
किसी के लिए गठबंधन है राजनीति,
दूसरे के लिए वही है मौका परस्ती!!
जहां प्रतिनिधि बिकने को हैं तैयार,
उनकी कीमत लाखों करोड़ के पार!!
शपथ से पहले होटल में मौज उड़ाते,
जीत मिलते ही जनता को भूल जाते!!
खरीद-फरोख्त कोई भ्रष्टाचार नहीं,
राजनेता कुछ कर ले अत्याचार नहीं!!
हमारे लोकतंत्र में सब कुछ चलता है,
नेता नहीं यहां पर धनबल बोलता है!!
लोकतंत्र के प्रहरी स्तंभ दरबारी हुई,
शेष सभी स्तंभ जवाबदेही भूल गई!!
यहां के मतदाता हैं बड़े भोले भाले,
वोट देकर मुंह पर लगा लेते हैं ताले!!
अंबेडकर की चिंता सही दिखने लगी,
जब लोकतांत्रिक संस्थाएं बिकने लगी!!
लगातार लोकतंत्र की बदसूरती बढ़ रही,
जनता चुपचाप उनके करतूत पढ़ रही।।
कहीं ऐसा न हो लोकतंत्र से विश्वास उठे,
जन के अंदर की ज्वालामुखी फूट पड़े।।
— गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम