ऋषि दयानन्द के विषपान द्वारा निधन से वैदिक धर्म प्रचार की अर्णनीय हानि हुई
ओ३म्
महाभारत के बाद उत्पन्न प्रथम वेद ऋषि दयानन्द ने विलुप्त वेदों का पुनरुद्धार किया था। उन्होंने केवल वेद संहिताओं का ही उद्धार नही नहीं किया अपितु वेदों के बीस हजार से अधिक मन्त्रों के सत्य अर्थ जानने की प्रक्रिया व पद्धति का भी पुनरुद्धार किया था। वह स्वात्म प्रेरणा एवं लोगों के आग्रह से वेदार्थ वा वेदभाष्य रचना के कार्य में प्रवृत्त हुए थे। उनका किया हुआ ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण का संस्कृत व हिन्दी भाष्य वैदिक साहित्य में अपूर्व, दुर्लभ है और मानव जाति की अपूर्व निधि है। ऋषि दयानन्द जी की यह देन एक ऐसी देन है कि इससे वह संसार के महापुरुषों में शीर्ष व श्रेष्ठतम महापुरुष सिद्ध होते हैं। उन्होंने इतने कार्य से ही सन्तोष नहीं किया था अपितु इसके साथ धार्मिक अविद्या व अन्धविश्वास आदि को दूर करने के लिये विपक्षी मतों से वेद की मान्यताओं के समर्थन व पोषण में शास्त्रार्थ वा शास्त्र चर्चायें भी की थी और सदैव विजित व सफल रहे थे। इसके साथ ही उन्होंने वेदधर्म के प्रचार व अन्धविश्वास दूर करने, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन, शिक्षा एवं देश की आजादी का मूल मन्त्र देकर भी देश व समाज का अनन्त उपकार किया।
ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचारार्थ तथा संसार से अविद्या के उन्मूलन के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि अनेकानेक ग्रन्थ प्रदान किये। उनका जीवन भी संसार के महापुरुषों के जीवन साहित्य में अत्युत्तम एवं अन्यतम है। अभी तक उनका सही मूल्याकंन नहीं किया गया है और न ही देश व समाज में उनको पात्रता के अनुरूप उचित स्थान ही मिला है। उनके प्रति पक्षपात का कारण उनके मूल भावों व सत्य सिद्धान्तों को न समझना है। इसका कारण अविद्या मुख्यतः है। अविद्या पर ही ऋषि दयानन्द ने चोट की थी और विद्या एवं धर्म का सत्यस्वरूप व उसके आचरण को देश व समाज में प्रतिष्ठित किया था। देश व संसार के लोग, जो अपनी आत्मिक, सामाजिक एवं पारलौकिक उन्नति सहित अवागमन से मुक्त होकर ईश्वर के आनन्द में मोक्षावस्था को प्राप्त होकर विचरण करना चाहते हैं, उनके पास ऋषि दयानन्द की विचारधारा को अपनाने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग व विकल्प नहीं है। आत्मा व जीवन की उन्नति के लिए संसार के सभी लोगों को असत्य व अविद्या का त्याग करना ही होगा और सत्य व विद्या को अपनाना ही होगा। आर्यसमाज को इस बात का गौरव प्राप्त है कि वह विश्व की एकमात्र ऐसी धार्मिक व सामाजिक संस्था है जो सत्य तथा विद्या का प्रचार करती है और असत्य एवं अविद्या से मुक्त है।
ऋषि दयानन्द के जीवन का अध्ययन करने पर विदित होता है कि उनके जैसा विद्याव्यसनी, विद्वान, वेदों के प्रति निष्ठावान, वेदार्थ का जानकार व प्रचारक, धर्म एवं सामाजिक जीवन का मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, ब्रह्मचारी, समाज सुधारक, शिक्षाविद्, धर्म एवं राजनीति का विद्वान, विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के अनुरूप मानने वाला, सबका मित्र, सबको अज्ञान, अविद्या व दुःखों से मुक्त कराने वाला, सबका कल्याण चाहने वाला मनीषी मधुवर्षी वक्ता तथा प्राचीन इतिहास का मर्मज्ञ व्यक्ति दूसरा नहीं हुआ। इन कारणों से ऋषि दयानन्द के अज्ञानी शत्रुओं द्वारा उन्हें विषपान कराकर असमय मार देने से देश व समाज की अपूरणीय क्षति हुई है। यदि वह सामान्य जीवन जीते हुए दीर्घायु को प्राप्त होते तो विश्व का अत्यन्त कल्याण होता और विश्व से अविद्या दूर करने में और अधिक सहायता प्राप्त होती। ऋषि दयानन्द की अल्प आयु में मृत्यु होने से देश व समाज की अनेक प्रकार से क्षति हुई है। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में, रात्रि व दिन के हर क्षण को, वेद प्रचार व अविद्या को दूर करने के कार्य में समर्पित किया था। उनके बाद उनके स्तर का वेदों का विद्वान, वेद प्रचारक तथा समाज से अन्धविश्वास, पाखण्ड, सामाजिक कुरीतियां दूर करने वाला दूसरा सुधारक, विद्वान, प्रचारक व नेता नहीं हुआ। वह ईश्वर के बाद संसार के सच्चे पुरोहित सिद्ध हुए। यदि उनके जैसे और विद्वान होते तो इससे देश व समाज का अपार हित व कल्याण होता। इसी कारण से सच्चे ईश्वर भक्त व श्रद्धालु ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि वह ऋषि दयानन्द जैसे अन्य ऋषियों को संसार में बड़ी संख्या में उत्पन्न करें जिससे संसार से अविद्या दूर होने के साथ सभी प्रकार की हिंसा, अन्याय, अत्याचार, शोषण, घृणा, अशान्ति तथा दुःखों का अन्त हो सके।
ऋषि दयानन्द ने अपने समय में वेदों का अपूर्व रीति से प्रचार व प्रसार किया। उनके प्रचार से सभी मतों के विद्वान, देशी विदेशी राज्याधिकारी तथा समाज के लोग प्रभावित होते थे। अनेक लोग उनके वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं को स्वीकार भी करते थे। उनके समय में ही उनके विचारों से अनेक लोग प्रभावित हुए थे। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि अनेक विद्वान हुए जिन्होंने ऋषि दयानन्द को अपना गुरु, स्वामी वा नेता स्वीकार किया था। ऋषि दयानन्द की असामयिक मृत्यु के बाद इस कोटि के अन्य विद्वान कम व नगण्य ही हुए हैं। यदि ऋषि दयानन्द कुछ वर्ष और जीवित रहते और अधिक प्रचार प्रसार करते तो उनकी शिष्य मण्डली भी अत्यन्त विशाल होती। सम्भव है कि समाज व देश को अनेक स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम तथा पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जैसे विद्वान, नेता तथा वेद प्रचारक मिलते। उनके निधन से देश को अन्य योग्यतम शिष्य नहीं मिल सके जो ऋषि दयानन्द सहित उनके प्रमुख शिष्यों का स्थान ले सकते। इस कारण देश व समाज को हानि हुई।
ऋषि दयानन्द की यदि विषपान द्वारा दिनांक 30 अक्टूबर, 1883 को मृत्यु न होती तो वह वेदभाष्य का कार्य पूरा कर देते जिससे देश व संसार सहित सभी मनुष्यों का अत्यन्त उपकार व हित होता। ज्ञान व धर्म की दृष्टि से संसार में वेद के समान कोई ग्रन्थ व ज्ञान नहीं है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों की आत्माओं में अन्तर्यामी रूप से प्रेरणा करके प्रदान किया था। इस वेद ज्ञान को ब्रह्मा जी आदि सभी ऋषियों ने सुरक्षित रखा व इनका जगत में प्रचार प्रसार किया। ईश्वर की कृपा व ऋषियों के पुरुषार्थ से यह ज्ञान इस कल्प में अपने आदि समय से 1.96 अरब वर्षों तक महाभारत काल तक पूर्ण सुरक्षित रहा। वेदों के सत्य अर्थ भी महाभारत काल तक सुरक्षित रहे थे। महाभारत युद्ध में सभी व अधिकांश वेदों के विद्वान व ऋषि समाप्त हो गये थे। अव्यवस्था के कारण वेदों का अध्ययन व अध्यापन बाधित हुआ था जिसका परिणाम वेद एवं इसके यथार्थ अर्थों का लोप होना रहा। पांच हजार वर्षों तक यही स्थिति बनी रही। ऋषि दयानन्द ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज व अध्ययन करने सहित वेदांगो के मर्मज्ञ गुरु दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु विरजानन्द सरस्वती जी से अध्ययन कर वेदों के सत्य अर्थ प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त की थी जिससे वह वेदों के यथार्थ व सत्य अर्थ कर सके। इसके अपूर्ण रह जाने से मानव जाति की सबसे बड़ी क्षति हुई है। आज संसार में जो समस्यायें हैं वह प्रायः वेदों की अप्रवृत्ति अर्थात् वेदों के सत्य ज्ञान के अनुसार आचरण व व्यवहार न होने के कारण से ही है। यदि ऋषि दयानन्द और अधिक जीवित रहते तो वह वेद प्रचार सहित वेदों के भाष्य अर्थात् सत्य वेदार्थ के कार्य को आगे बढ़ाते जिससे संसार में सद्गुणों व विद्या की वृद्धि होती तथा दुर्गुणों का नाश होता। वेदों के प्रचार प्रसार सहित वेदभाष्य का अपूर्ण रह जाना भी ऋषि दयानन्द के निधन से हुई क्षतियों में सबसे बड़ी एक क्षति है।
यदि ऋषि दयानन्द कुछ समय और अधिक जीवित रहते तो वह सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि की भांति अनेक महत्वपूर्ण एवं लाभप्रद ग्रन्थों की रचना करते जिससे देश व समाज लाभान्वित होता। उनकी मृत्यु से सभी मनुष्य इस लाभ से भी वंचित हुए हैं। ऋषि दयानन्द अपने समय में निरन्तर देश के अनेक भागों में जाकर वहां अविद्या दूर कर रहे थे और इसके साथ ही वेद प्रचार के लिये आर्यसमाजों की स्थापनायें कर रहे थे। यदि वह और अधिक समय तक रहते तो देश आर्यसमाजों की संख्या में और अधिक वृद्धि होती जिससे मनुष्य मात्र को धार्मिक व सामाजिक अनेक लाभ प्राप्त होते। ऋषि दयानन्द ने ही देश को आजादी का मूल मन्त्र ‘कोई कितना ही करे किन्तु स्वदेशीय राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है’ दिया था। यदि वह और अधिक समय तक जीवित रहते तो देश की आजादी में उनकी भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण होती। वह वह सभी कार्य करते जिससे देश स्वावलम्बी एवं स्वतन्त्र होता। ऋषि दयानन्द ने सन् 1857 में भी देश की आजादी के प्रथम आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके उस इतिहास को सुरक्षित नहीं रखा जा सका। अतः उनसे भविष्य में भी देश हित करने की ऐसी ही आशायें थी। सौभाग्य से उनके अनुयायियों ने देश की आजादी में बढ़ चढ़ कर भाग लिया जिसका सुपरिणाम हमारे सामने है कि हम स्वतन्त्र हुए किन्तु हमें पूर्ण स्वतन्त्रता न तब मिली थी और न ही आज प्राप्त है। आज भी हम मानसिक रूप से विदेशी विचारधाराओं के दास हैं। हमें ज्ञान व विज्ञान उपलब्ध होते हुए भी हम आज तक एक सत्य मत पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं। मनुष्य का धर्म एक होता है परन्तु आज धर्म के नाम पर संसार में अविद्यायुक्त अनेक मत-मतानतर प्रचलित हैं। हम यह भी अनुभव करते है कि यदि ऋषि दयानन्द कुछ समय और जीवित रहते तो देश देशान्तर में संस्कृत, हिन्दी, गोरक्षा, भारतीयता सहित वैदिक धर्म व संस्कृति का अधिक प्रचार प्रसार होता। संसार से अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीतियां और अधिक मात्रा में समाप्त होती।
हम ईश्वर के ज्ञान व अधिकांश गुणों से युक्त ऋषि दयानंद को स्मरण कर उन्हें नमन करते हैं। ईश्वर करें कि देश, समाज व विश्व में ऋषि दयानन्द जैसी पवित्र देव आत्मायें जन्म लें जो वैदिक धर्म व संस्कृति का उद्धार करने सहित विश्व का कल्याण भी करें। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य