तीर्थ
सौंधी हवा का झोंका
मेरे आँचल में
फिसल कर आ गिरा।
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं को चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
जा के थम गया।
एहसास को एक नई खोज मिल गयी।
एक नया वजूद
मेरी देह से गुज़र गया।
आसक्ति से अनासक्ति तक की दौड़,
भोग से अभोग तक की चाह,
जीवन से मृत्यु तक की
प्रवाह रेखा के बीच की
दूरियों को तय करती हुई मैं
इस खोने और पाने की होड़ को
अपने में विसर्जित करती गई।
न जाने वह चलते हुए
कौन से कदम थे
जो ज़मीन की उजड़ी कोख में
हवा के झोंके को पनाह देते रहे।
इन्हीं हवाओं के घुँघरेओं को
अपने कदमों में पहन कर
मैं जीवन रेखा की सतह पर
चलती रही—चलती रही—
कभी बुझती रही
कभी जलती रही।
— मीना चोपड़ा