इतिहास

बख्तियार खिलजी आज भी जिन्दा है!

पटना से पूरब की ओर चलने पर एक छोटा-सा जंक्शन पड़ता है-बख्तियारपुर, जहाँ से एक लाइन राजगीर की ओर जाती है और दूसरी मोकामा की ओर।मोकामा से नाक की सीध चलने पर क्यूल-झाझा-आसनसोल आयेगा और बायीं ओर चलने पर राजेन्द्र पुल पार कर बरौनी जंक्शन आयेगा,जहाँसे सहरसा या दरभंगा का रास्ता पकड़ा जा सकता है। दिल्ली से राजगीर के बीच मगध एक्सप्रेस चलती है,जो कभी विशाल मगध साम्राज्य की राजधानी था। उसीके पास नालन्दा विश्वविद्यालय का खंडहर आज भी उस दिन को यादकर बिसूरता है, जब ११९९ में तुर्क लुटेरा बख्तियार खिलजी ने इसके विशाल पुस्तकालय में आग लगा दी थी और भारतीय वाड.‌मय की लाखों पांडुलिपियाँ महीनो जलती रहीं।आश्चर्य की बात यह है कि वह सिर्फ़ दो सौ घुड़सवारों के साथ आया था और नालन्दा विश्वविद्यालय में उस समय कम से कम बीस हजार छात्र पढ़ते थे।‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ के मंत्र ने उन्हें व्यावहारिक जीवन में इतना अशक्त बना दिया था कि वे मिलकर दो सौ घुड़सवारों का सामना भी नहीं कर सके!

जब-जब इस छोटे-से बख्तियारपुर स्टेशन से गुजरता हूँ, मन में एक प्रश्न उठता है कि हमारा लोकतंत्र इतना अन्धा या समद्रष्टा कैसे हो गया है कि उसे आक्रान्ता बख्तियार खिलजी और सम्राट अशोक में कोई अन्तर ही नहीं दिखता। जब मद्रास का पुराना नाम चेन्नै, बम्बई का मुम्बई और कलकता का कोलकाता हो सकता है; पटना का पुराना नाम पाटलिपुत्र रखने की आवाज उठ सकती है, तब एक नृशंस आततायी का नाम बख्तियारपुर पर कब तक ढोए? इसका पुराना नाम क्या था? यदि किसीको याद नहीं है,तो क्यों न नालन्दा विश्वविद्यालय के किसी विद्वान कुलपति के नामपर इसका नाम रख दिया जाए? शब्दों की दुनिया में एक हज़ार साल से चले आ रहे इस कलंक को मिटाकर एक सुन्दर-सा परिवर्तन किया जाए।अंग्रेज़ों के लिखे या उनके अनुसरण में लिखे पारम्परिक इतिहास में तो बहुत कम सामग्री मिलेगी, मगर हमारा इतिहास वही नहीं जो अंग्रेज़ लिख गये हैं।उसे कुरेदकर देखने पर सच तक पहुँचा जा सकता है, जिसके लिए आपको अपने प्रचुर प्रमाण ग्रंथों के अलावा जनश्रुतियों और मौखिक परम्पराओं पर भी गौर करना पड़ेगा, जो सामान्यतः उस क्षेत्र के ग्रामीणों और पुराने गाइडों के पास होती है।

हमारे देश में बच्चों को जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह ब्रिटिश इतिहासकारों की पुस्तकों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, आजाद भारत के बच्चों को अब भी बताया जाता है कि वास्को डिगामा ने भारत की खोज की! यह स्थापना यूरोप के बच्चों के लिए भले ही माने रखता हो, मगर भारत के बच्चों के लिए नहीं। इसी प्रकार, हमारे इतिहास में कोलम्बस  समुद्री डाकू को जिस प्रकार महिमा-मंडित कर प्रस्तुत किया जाता है, वह भी चिन्तनीय है। वास्को डिगामा भी समुद्री लुटेरा ही था। कुछ वर्ष पहले, बरमिंघम में एक भारतीय चिकित्सक के घर में मुझे बीबीसी द्वारा भारतीय इतिहास पर तैयार की गयी छह घंटे की फ़िल्म देखने का अवसर मिला। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसमें महाभारत तो है, लेकिन रामायण को पूरा गायब कर दिया गया है,यह कहकर कि यह बाद में विक्रमादित्य के समय जोड़ा गया है! भारत का कोई नागरिक,चाहे वह किसी जाति-धर्म का हो, यह विश्वास कर सकता है? यह भी एक साजिश ही है कि जो इतिहास खंड भारतीय सभ्यता और संस्कृति की आधारशिला है, उसी को गायब कर दिया जाए, जिससे पूरी सभ्यता भड़भड़ाकर नीचे गिर जाए। इतिहास की चूक से अंग्रेज़ यहाँ शासक बन गये थे, मगर यहाँ का सुदीर्घकालिक सांस्कृतिक इतिहास उन्हें बार-बार बौना साबित करता था। वे जब जंगलों में पशु का जीवन बिता रहे थे, तब यहाँ का  सुविकसित समाज और राष्ट्र  जीवन को सुन्दरतर बनाने के मार्ग ढूँढ रहा था। इसलिए परम्परागत भारतीय इतिहास को नकारते हुए उन्होंने  इस तरह की बहुत शरारतें  की हैं।

आज अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को प्राचीन भारत की सही जानकारी नहीं दी जाती है। उन्हें केवल विदेशी आक्रान्ताओं की सूची दी जाती है, यह कहकर कि तुम्हारा देश हमेशा पददलित रहा। द्रविड़ों को मूल निवासी और आर्यों को बाहरी बताना और आर्यों व यूरोपीय समुदायों का एक मूल का बताना भी एक शरारत ही है। हमारा इतिहास कहता है कि द्रविड़ भी गौड़, कान्यकुब्ज आदि  ब्राह्मणों की भाँति पंचब्राह्मणों में एक है। समस्या यह है कि हम बाहर से फैलायी गन्दगी को अपने दिमाग में इतना ठूँस लेते हैं कि सत्य को स्थान देने के लिए उसमें गुंजाइश ही नहीं रहती। गंदा खून और गंदा मन ही समाज में वह तमस फैलाता है,जिसमें दूसरों के विचारों का कोई सम्मान नहीं होता।मैं अपने आसपास देखकर ही कह सकता हूँ कि यह तमस दिनोदिन और बढ़ता जा रहा है। बच्चों के इतिहास में महाभारत का प्रचंड वीर भीम एक विदूषक के रूप में पढ़ाया जाता है, जो बहुत खाता था ! भारतीय इतिहास एक-दो हजार साल का नहीं, लाखों साल का है। इसलिए इसमें उन्हीं चरित्रों और घटनाओं को महत्व दिया गया जो मानव समाज के विकास में मील के पत्थर थे। मगध साम्राज्य कभी इतना विशाल था कि आज उसका चथाई भी भारत नहीं रह गया है! लेकिन समय की मार यह कि आज व मगध साम्राज्य बिहार के मात्र चार जिलों में सिमट कर रह गया है।मगध साम्राज्य का इतिहा अलग से ग्रन्थ के रूप में आज खोजे से भी नहीं मिलेगा। मुझे नहीं लगता कि मगध, कोसल, हस्तिनापुर, अवध, अवन्ती, गांधार जैसे राज्यों या १६ महाजनपदों की विस्तृत जानकारी लिये बिना कोई भारतीय इतिहास को समझ सकता है। इन सभी साम्राज्यों पर अलग-अलग पुस्तकें होनी चाहिए, जो  अंग्रेजी हुक्मरानों द्वारा कल्पित इतिहास ग्रंथों की नकल न हो, बल्कि जिसमें संस्कृत में उपलब्ध प्रचुर सामग्री और जनपदों में सदियों से चली आ रही वाचिक परम्परा से प्राप्त लोक इतिहास का सामंजस्य हो।यह महत्कार्य भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद  कर सकती है, बशर्ते वहाँ के लोगों में इसके लिए मिशनरी भावना हो। नौकरी करने आये लोगों से यह काम नहीं होने का है।

मगध साम्राज्य का इतिहास भारतवर्ष के इतिहास का ऐसा अध्याय है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। उसकी राजधानी राजगृह भी रही और बाद में पाटलिपुत्र भी बनी। विश्व को प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ानेवाले एक नहीं दो-दो धर्म बौद्ध और जैन इसी मगध साम्राज्य की देन हैं। इन दोनो जीवन-दर्शनों ने भारत ही नहीं, तमाम देशों में जन साधारण की दशा-दिशा बदल दी। श्रीलंका से लेकर चीन-जापान तक अनेक देशों ने बुद्ध के प्रेम और अहिंसा के सिद्धान्तों का अनुसरण किया। सम्राट अशोक ने बुद्ध के संदेशों को सामान्य जन तक अविकल पहुँचाने के लिए ग्रामों में, अरण्यों में शिलालेख लगवाये और बुद्ध की प्रतिमा स्थापित करवायी। इस सन्दर्भ में दो विडम्बनाएँ चकित करती हैं। जिस बुद्ध ने देवी-देवताओं की मूर्तिपूजा का विरोध किया, उसी बुद्ध की इतनी मूर्तियाँ देश-देशान्तर में लगीं कि बुद्ध को बुत यानी मूर्ति का पर्याय मान लिया गया। इतनी मूर्तियाँ किसी हिन्दू देवी-देवता की नहीं हैं। बौद्ध भिक्षुओं ने अपनी तक्षण कला से न जाने कहाँ-कहाँ गिरि-कन्दराओं में जाकर बुद्ध की विशाल प्रतिमाएँ गढ़ीं। बामियान की विशाल बुद्ध प्रतिमा को तो अभी कुछ वर्ष पहले ही भारत सहित सभ्य देशों को अंगूठा दिखाते हुए तालिबानों ने बम से उड़ा दिया। दूसरी चकित करनेवाली बात यह है कि जिस मगध साम्राज्य ने बौद्ध धर्म के माध्यम से दुनिया को प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाया, उसीके राजवंश में पिता को मारकर पुत्र द्वारा सिंहासन हड़पनेवाले  राजाओं  की एक शृंखला सी बन गयी। बुद्ध के समकालीन और उनके अनुयायी राजा बिम्बिसार की हत्या उसके पुत्र अजातशत्रु ने की,  अजातशत्रु की हत्या उसके पुत्र उदयिन ने,  उदयिन की हत्या उसके पुत्र अनिरुद्ध ने और उदयिन की हत्या उसके पुत्र मुण्डक ने की। मगर भारतीय जन-मानस ने इन पितृहन्ता  राजाओं के कृत्य को पूरी तरह विस्मृति के गर्त में डाल दिया और केवल रामायण के आदर्शों को याद रखा ,जिसमें एक भाई अपने बड़े भाई की खड़ाऊँ को राज सिंहासन पर रखकर शासन चलाता है। इतिहास गवाह है कि राज्याश्रय पाकर बौद्ध भिक्षु इतने अविचारी हो गये थे कि सनातन धर्मियों को शास्त्रार्थ में कुतर्कों से पराजित कर उन्हें प्राणदण्ड  दिलाने लगे और अगर मिथिला में उदयनाचार्य जैसे उद्भट विद्वान उत्पन्न न होते, तो बौद्धों द्वारा मारे गये सनातनधर्मी विद्वानों की संख्या तैमूर लंग के नर संहार की सीमा पार कर गयी होती।

वस्तुतः देखा जाए तो बौद्ध या जैन धर्म भारतीय सनातन धर्म की शाखा-प्रशाखाएँ ही हैं। ये एकांगी हैं। बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करनेवाले भिक्षु-भिक्षुणी गाँवों में जाकर जिन गृहिणियों से भिक्षान्न पाते थे, वे शिव या राम के उपासक किसानों की गृहिणियाँ थीं। बुद्ध ने सनातन धर्म के सिद्धान्तों को जी भरकर कोसा, मगर उनका विकल्प नहीं दे सके। मनु ने गृहस्थी के दौरान हुई हिंसा को पाप नहीं माना है। इसी तरह बलि-प्रदत्त मांस के अलावा किसी प्रकार के मांस-भक्षण को पाप माना है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, उसका पारिभाषिक नाम सनातन धर्म है,जिसमें अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष चारों पुरुषार्थों के सम्यक पालन से जीवन की पूर्णता का विधान है। इसी प्रकार जीवन को चार खंडों में बाँटकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का विहित जीवन जीने की मर्यादा स्थिर की गयी है। मनु ने संन्यस्त जीवन में किसी पेड़ के नीचे रहकर वन में धरती पर गिरे फलों से पेट भरकर ईशोपासना करने का निर्देश दिया है। बुद्ध ने जीवन को अहिंसा और संन्यास की दिशा में पूरा मोड़कर उसे एकांगी बना दिया। बौद्ध भिक्षुओं ने  ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ को तो खूब याद किया, मगर जीवन में ऐसी परिस्थिति भी आती है जब आपको ‘युद्धं शरणं गच्छामि’ का उद्घोष भी करना पड़ता है। सभी भिक्षु गौतम बुद्ध जैसा प्रतापी नहीं हो सकते थे,जो वध के लिए आये अंगुलिमाल का मानस अपने उदात्त प्रेम व्यवहार से बदल दे। ऐसा होता तो कोई आक्रान्ता भारत में मार-काट कर ही नहीं पाता।यहीं बुद्ध धोखा खा गये और उनकी देखादेखी स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू भी। उन्हे उस चीन ने पटकनिया दिया, जो कभी बुद्ध का कट्टर अनुयायी था।

शाक्यवंश के राजकुमार बुद्ध यदि  श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते और उसका मनन करते तो वे जान पाते कि एक राजकुमार का राजधर्म से विमुख होकर संन्यस्त जीवन अंगीकार करना किसी भी देश के लिए कितना घातक है। बुद्ध का व्यामोह बहुत कुछ अर्जुन के व्यामोह जैसा है। अगर श्रीकृष्ण की गीता न होती तो अर्जुन भी चीवर पहनकर युद्धस्थल से निकल ही गया होता। जिस देश में गीता जैसा श्रेष्ठ और सम्पूर्ण जीवन-दर्शन हो, उस देश की यह दुर्गति हो कि सौ दो सौ घुड़सवार  लुटेरें आयें और सोमनाथ मन्दिर को तोड़कर  सारा वैभव लूट ले जाएँ, नालन्दा और विक्रमशिला जैसे विश्वप्रसिद्ध शिक्षाकेन्द्रों को  जलाकर राख कर दें,यह बौद्ध और जैन जैसे एकांगी धर्म का पालन करने का विनाशकारी परिणाम है। भिक्षुओं को गुरुकुल के छात्रों की तरह भिक्षा माँगकर पेट भरना तो सिखाया गया, लेकिन यदि  गुरुकुलों की तरह शास्त्र और शस्त्र में निष्णात भी किया जाता, तो हमारे देश का इतिहास  ही कुछ और होता। विशाल भारत के जिन जनपदों में उस प्रकार की सम्पूर्ण शिक्षा देने की परिपाटी थी, उधर जाने की आक्रान्ताओं की हिम्मत नहीं हुई। हमारी बदहवासी की हद तो यह है कि उस तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी की कब्र को ‘पीर बाबा की मजार’ कहकर हिन्दू-मुसलमान सभी मन्नतें माँगने जाते हैं। यह मानसिकता भी शायद बौद्धधर्म की अतिशय क्षमाशीलता का ही परिणाम है।

दुनिया के ढाई हजार वर्षों के पूर्ण अभिलेखित इतिहास में १४ सौ वर्षों तक जगमगाता रहनेवाला भारत ऐसा अपाहिज क्यों हो गया कि बाहर से जो आया, इसे लूटकर और इसके राजमुकुटों को अपने पाँव से कुचलकर जिन्दा लौट गया? बस्तर के जगदलपुर के राजीवरंजन प्रसाद (जिनका ‘आमचो बस्तर’ उपन्यास हिन्दी का बेस्ट सेलर है) बताते हैं कि आटविक जनपद दण्डक क्षेत्र  सम्राट अशोक की विशाल सेना के समक्ष कभी नहीं झुका। इसके आदिवासियों ने अशोक द्वारा स्थापित बुद्ध मूर्तियों को आदिवासी देवता  ‘भोंगा देवता’ मान लिया है और वे अपने अन्य देवी-देवताओं की तरह उसके सामने भी नारियल फोड़ते हैं मुर्गे की बलि चढ़ाते हैं। अतीत के विशाल मगध साम्राज्य के पराक्रमी राजा अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) और समुद्रगुप्त आज इतिहास के पन्नों में दब गये हैं। सनातन धर्मी सारिपुत्र जो अपने ५०० शिष्यों के साथ बुद्ध के पोआस यह कहने आये थे कि मैं ज्ञान के भार से चल नहीं पा रहा हूँ। आप मुझे इससे मुक्ति का  मन्त्र दीजिए।बुद्ध ने त्ब मुस्कुराकर कहा था कि ‘सीखे को अनसीखा करो।ज्ञान को गिरा दो।जो उससे बढ़कर है,वह तुममें स्वयं घट जाएगा।’ अब उसपर से सारिपुत्र की सन्तानों की आस्था हट गयी है। सारिपुत्र की सन्तानें नालन्दा के खण्डहरों में अश्लील प्रेमलीला करते, अमूल्य अवशेषों पर अपना गंदा नाम लिखते और पवित्र स्तूपों पर पाँव रखकर फोटो खिंचवाते पाये जाते हैं। यदि शिक्षा की यही स्थिति रही तो आनेवाली पीढ़ियाँ अपना इतिहास-भूगोल सब कुछ भूल जाएगी और तब हमारा राष्ट्रगान ‘कोउ नृप होइ हमे का हानी’ जैसे वाक्य हो जाएँगे।

— डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

जन्म 1मई ,1949 को समस्तीपुर (बिहार) के देवधा गाँव में । वाराणसी में शिक्षा-दीक्षा और दस वर्षों तक ( आज दैनिक) पत्रकारिता । कलकत्ता में 18 वर्षों तक यूको बैंक व् हिंदुस्तान कॉपर और देहरादून में 12 वर्षों तक ओएनजीसी में उच्चपदस्थ राजभाषा प्रभारी के रूप में सेवा-कार्य । अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान (मास्को),उप्र हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण , कलकत्ता का काव्य वीणा , परिवार व अनुष्का सम्मान (मुंबई), परम्परा ऋतुराज सम्मान (दिल्ली )दुष्यंत कुमार अलंकरण(भोपाल ) आदि तमाम पुरस्कारों से सम्मानित । `जाल फ़ेंक रे मछेरे',` शिखरिणी', `ऋतुराज एक पल का' (हिंदी गीत संग्रह ) तथा `क्यो नहि दै अछि आगि' और 'पुरना सतघरवा मे बैसल '(मैथिली गीत संग्रह ), ` निरख सखी ये खंजन आये' निबंध संग्रह प्रकाशित । महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ,वर्धा में प्रोफेसरी ।राष्ट्रीयं एवं अंतर्राष्ट्रीय काव्य मंचों के लोकप्रिय कवि एवं वरिष्ठ गीतकार |मो.9412992244.