वैदिक धर्म सत्य सिद्धान्तों से युक्त तथा अन्धविश्वासों से मुक्त है
ओ३म्
वैदिक धर्म ही मनुष्य का सत्य व यथार्थ धर्म है। इसका कारण वैदिक धर्म का ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित होना है। वेदों को हमारे ऋषि मुनियों ने सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बताया है। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक इसलिये है कि वेदों का प्रादुर्भाव सृष्टिकर्ता ईश्वर से हुआ है। संसार में तीन सत्ताओं ईश्वर, जीव व प्रकृति में पूर्ण ज्ञान से युक्त केवल एक ही सत्ता है जिसे ईश्वर कहते हैं। ईश्वर का सर्वज्ञ वा सर्वज्ञानमय होना नित्य व अनादि है। इसे ईश्वर का स्वाभाविक गुण भी कह सकते हैं। हम मनुष्य हैं तथा हमारा जीवन हमारे शरीर में निहित जीवात्मा के द्वारा चलता है। जीवात्मा अत्यन्त सूक्ष्म, एकदेशीय, ससीम एवं एक अल्पज्ञ जन्म-मरण धर्मा सत्ता है। हमने मनुष्य जन्म लिया तब हम रोने व दुग्धाहार आदि करने के अतिरिक्त कुछ जानते नहीं थे। हमारे माता पिता ने हमें बोलना व समझना सिखाया। हमारी भाषा वही होती है जिसे हमारी मातायें बोलती हैं। हमें ज्ञान भी उसी मात्रा में प्राप्त होता है जितना हमें हमारे माता-पिता तथा विद्यालयों में हमारे आचार्य हमें कराते हैं। इसके अतिरिक्त भी हम विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़कर अपनी जानकारी व ज्ञान को बढ़ाते हैं।
वेद व वैदिक साहित्य भी पुस्तकों में सुलभ होता है। वर्तमान समय में वेदों व वैदिक साहित्य के हिन्दी व अंग्रेजी भाषाओं में अनेक भाष्य, टीकायें व अनुवाद हमें प्राप्त होते हैं। इन्हें पढ़कर भी हम वेद व समस्त वैदिक साहित्य से परिचित हो सकते हैं। वेदों मे जो ज्ञान प्राप्त होता है वह ज्ञान संसार के किसी वेद परम्परा के विपरीत परम्परा वाले ग्रन्थ से प्राप्त नहीं होता। वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसे विश्व के सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। अतः वेदों की सभी सत्य बातें ही संसार की सभी परम्पराओं, संस्कृतियों, मत व सम्प्रदायों जिन्हें धर्म भी कहा जाता है, वेदों से ही उनमें पहुंची हैं। मनुष्य की अल्पज्ञता के कारण बहुत सी सत्य बातों का लोप भी विगत दीर्घकाल में हुआ है। इसलिये वेदों का अध्ययन किये जाने की महती आवश्यकता है। वेदों का अध्ययन छूटने से ही हम अविद्या व अज्ञान सहित अन्धविश्वासों, पाखण्डों, मिथ्या दूषित परम्पराओं व कुरीतियो को प्राप्त हुए हैं। वर्तमान में भी मत-मतान्तरों में अनेक कुरीतियां व अन्धविश्वास देखे जाते हैं। इनके विद्यमान होने से संसार के सभी मनुष्य सुख व शान्ति से जीवन व्यतीत नहीं कर पाते। अतः वेदों पर आधारित ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि, मनुष्य के कर्तव्य व अकर्तव्यों सहित ईश्वर की एक समान उपासना पद्धति जो मनुष्य को ईश्वर के सभी सत्य गुणों, कर्मों व स्वभाव से परिचित करा कर उसका साक्षात्कार करा सके, आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही मनुष्य सत्य ज्ञान व मान्यताओं से युक्त होकर परस्पर प्रेम व सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए जीवन के चार पुरुषार्थ व फलों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। यही संसार के सभी मनुष्यों के लिए अभीष्ट हैं।
हमारा यह संसार ईश्वर से बना है। उसी ने इसको धारण किया हुआ है। वही इस संसार को गति देता व इसके चलाने के साथ इसे सम्भाले हुए हैं। हमारे ग्रह व उपग्रह अपनी अपनी नियत कक्षाओं में चलते हैं। कोई अपने मार्ग का अतिक्रमण व उल्लघंन नही करता है। इसका कारण इनका ईश्वर के द्वारा संचालित होना है। ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वज्ञ, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र सत्ता है। ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है। वही सब जीवों का माता, पिता व आचार्य भी है। ईश्वर ही अल्पज्ञ जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल देने के लिये इस सृष्टि को बनाते व इसे संचालित करते हैं तथा प्रत्येक जीव को उसके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देते हैं। ईश्वर पूर्ण ज्ञानी है। उसे सब विषयों का ज्ञान है। वह सर्वशक्तिमान है। वह सृष्टि को बनाने व उसे संचालित करने में किसी अन्य जीव आदि की सहायता नहीं लेता। उसके समान कोई अन्य चेतन सत्ता है भी नहीं है। जीव अल्पज्ञ एवं अल्प बल वाले होते हैं। वह ईश्वर के कार्यों में किसी प्रकार से भी सहायक नहीं हो सकते।
सभी चेतन अनादि, अमर, नाशरहित जीव सत्तायें ईश्वर से ही जन्म, ज्ञान, शक्ति तथा सुख आदि प्राप्त करते हैं। ईश्वर ने ही सब मनुष्यों को जन्म व उनके जन्म के अनुसार शरीर आदि पदार्थ प्रदान किये हैं। सृष्टि के आरम्भ काल में ही उसने मनुष्यों को श्रेष्ठतम निर्दोष भाषा संस्कृत भाषा दी थी। इसी भाषा में परमात्मा ने मनुष्यों को ज्ञान युक्त करने के लिए चार ऋषियों के माध्यम से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं से युक्त है। वेदों का अध्ययन कर ही मनुष्य पूर्ण ज्ञानी बनते हैं। पूर्ण ज्ञानी का अर्थ होता है कि मनुष्य की बुद्धि जितना ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम है, वह समस्त ज्ञान उसे वेदों का अध्ययन व उसका प्रयोगों व अनुभवों द्वारा विस्तार करने पर प्राप्त हो जाता है। संसार में विद्याओं का विस्तार भी वेदों से प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही भाषा व ज्ञान से परिचित लोगों ने किया है। यह भी सत्य है कि मनुष्य को संस्कृत भाषा की शुद्धता को पूर्णरूपेण सुरक्षित रखने में सफलता नहीं मिली। उनमें उच्चारण के अनेक दोष उत्पन्न होने से नई नई अनेक भाषायें देश देशान्तर में उत्पन्न हुईं। उन्हीं भाषाओं की सहायता से लोगों ने परस्पर सहयोग एवं समन्वय से ज्ञान व विज्ञान की उन्नति की है। एक विषय में ज्ञान व उसके निष्कर्ष एक ही होते है। इस कारण विश्व में ज्ञान व विज्ञान की विषय वस्तु तथा निष्कर्षों में एकता व समानता तथा विश्व के सभी विद्वान एक विषय में एक मत को स्वीकार करने वाले देखे जाते हैं। वेदों का ज्ञान भी परमात्मा के अनुभवों से सिद्ध ज्ञान है। अतः वेदों की सभी बातें स्वतः प्रमाण मानी जाती हैं। वेदों की किसी बात को यथार्थरूप में जानकर उसे यथावत् माना जा सकता है। इसी से कल्याण होता है। हमें वेदों की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का चिन्तन, मनन व ध्यान करते रहना चाहिये और उसका सदुपयोग अपने जीवन में आचरण द्वारा करना चाहिये। इससे हमें धर्म पालन सहित सुख व कल्याण का लाभ प्राप्त होता है। ऐसा ही हमारे पूर्वज व पूर्ण विद्वान ऋषि मुनि सृष्टि के आरम्भ से करते आये हैं। यही हमें भी करना योग्य है। ऐसा करने से हम सदाचारी बनते व ईश्वर की कृपा व सहाय के पात्र बनते हैं।
ऋषि दयानन्द वेदों के सच्चे मर्मज्ञ ऋषि थे। उन्होंने वेदों की प्रत्येक बात व सिद्धान्त की तर्क व युक्ति पूर्वक एवं ज्ञान व विज्ञान पर आधारित परीक्षा की थी। उन्होंने वेदों की सभी बातों व कथनों को सत्य पाया था। इसीलिये उन्होंने वेद स्वतः प्रमाण है, इस सिद्धान्त को स्वीकार किया व इसका प्रचार किया था। इस सिद्धान्त को सत्य सिद्ध करने के लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। इन ग्रन्थों व उनके वेदभाष्य से मनुष्य को अपने सम्पूर्ण जीवन में सद्शिक्षा, मार्गदर्शन व प्रेरणायें प्राप्त होती है। मनुष्य वेद मार्ग पर चल कर सत्य से युक्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार तक कर सकता है और जीवनमुक्त होकर मुक्ति वा मोक्षानन्द को प्राप्त कर सकता है। यही संसार के सभी मनुष्यों का जीवन लक्ष्य होता है। हमारे प्राचीन सभी ऋषि, मुनि व विद्वान भी वेदों का अध्ययन व आचरण किया करते थे। इसी से उनको यश प्राप्त हुआ था तथा वह मोक्ष को प्राप्त हुए थे। हमारे महापुरुष राम व कृष्ण ने भी वेदों का ही अध्ययन व आचरण किया था। आज लाखों वर्ष बाद भी उनका यश विद्यमान है।
वेदों का अध्ययन करने पर विदित होता है कि वेद ज्ञान से युक्त तथा अज्ञान से मुक्त हैं। यही कारण है कि वेदाध्ययन करने से मनुष्य ज्ञानी, विद्वान, मनीषी, ऋषि, मुनि व योगी बनते हैं। वह सत्य धर्म व आचरणों से युक्त होते हैं। उनके जीवन में किंचित कोई अन्धविश्वास व पाखण्ड नहीं होता। उनके जीवन में किसी प्रकार की कोई मिथ्या व असत्य परम्परा व कुरीति नहीं होती। वह स्वयं वेद पढ़ते व सभी स्त्री व पुरुषों को बिना किसी आग्रह व भेदभाव के वेदों को पढ़ाते व वेदों का प्रचार करते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी वेदों से प्रेरणा ग्रहण कर वेद प्रचार किया था। उन्होंने सबको वेदाध्ययन का अधिकार दिया। स्त्री व शूद्र वर्ण के बन्धुओं को भी विद्या का अधिकार दिया जिससे हमारी मातायें, बहिनें तथा हमारे शूद्र बन्धु हमारे पुरोहित व विद्वान बनें और सब मिलकर यज्ञ करते हुए यज्ञ के पुरोहित व ब्रह्मा भी बनते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि वेद में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। सबको विद्या अध्ययन करने तथा सभी प्रकार के मर्यादोचित कार्य करने की स्वतन्त्रता है। इन व ऐसे ही कारणों से वेदों का सर्वोपरि महत्व है। संसार के सभी लोगों को ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर आर्यसमाज वा वैदिक धर्म की शरण में आना चाहिये। इसी से मनुष्य जाति व संसार का सुधार व कल्याण होगा तथा सभी मनुष्य सुखी होंगे। महाराज मनु ने कहा है कि ‘वेदऽखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात् चारों वेद ही धर्म का मूल व आदि स्रोत हैं। हमें मूल को ही पकड़ना चाहिये, उसे सुरक्षित रखना चाहिये तथा उसी का सेवन करना चाहिये। मूल के विपरीत व उसके विकृत स्वरूपों का सेवन नहीं करना चाहिये जो हमें मत-मतान्तर आदि से प्राप्त होते हैं। हमें इस रहस्य को जानकर वेदों की ही अपना धर्मग्रन्थ व जीवन में आचरण का आधार बनाना चाहिये। इससे हम आत्मा व शरीर की उन्नति को प्राप्त होकर मोक्षगामी हो सकते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य