संक्रमण काल में फिल्म उधोग पर असर पड़ा वही छविगृहों के बुरे हाल है। देखा जाए तो वर्तमान में शिक्षाप्रद फिल्मों का निर्माण लगभग बंद-सा हो गया है। जिससे की प्रेरित होकर अपराधी अपराध जगत को छोड़कर एक अच्छा इंसान बनने की और अग्रसर होवे । मगर वर्तमान में तो अधिकतर फ़िल्में हिंसा ,बलात्कार और मारधाड़ वालो फिल्मों के निर्माण का ही बोलबाला है। इससे युवा पीढ़ी पर बुरा असर पड़ना स्वाभाविक है। फिल्म निर्माताओं को चाहिए कि वे शिक्षाप्रद और प्रेरणादायी फ़िल्में ही बनाए। जिससे समाज में जागृति का संचार हो और लोग बुराइयाँ छोड़कर अच्छाई को आत्मसात करने लगे।अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में चयनित फिल्मों का दूरदर्शन पर प्रसारण किया जाना चाहिए |ताकि दर्शक राष्ट्र की संस्कृति एवं ज्ञानार्जन में उपयोगी पटकथाओं,फिल्मांकन एवं अभिनय की नवीन विचारधाराओं से परिचित हो सकें | ये फ़िल्में मन को प्रभावित करने वाली होती है,जिससे मानवीय संवेदना पूरी तरह उभरकर सामने आती है.एक बात यहाँ भी है की श्रेष्ठ कलात्मक फिल्मों को बनाने की दिशा में भारतीय निर्माता कतराते है | फिल्म उद्दोग के पूर्णतया व्यावसायिक होने से वे अच्छी कलात्मक फिल्मों का निर्माण कर फिल्मोत्सव में शामिल करने की सोच बहुत कम निर्मित करने की रखते है |
एक दौर चला था जब अर्द्धसत्य,पार ,सारांश ,उत्सव ,मोहनजोशी हाजिर हो इत्यादि फिल्मों ने पुरस्कार पाकर भारत का गौरव बढ़ाया था | अब ऐसा लगने लगा है कि यह गौरव वही जड़वत सा होगया है या इन्हे अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में शामिल करने की गति धीमी है | ऐसा लगता है कि अब भारत में कलात्मक तथा प्रभावपूर्ण फ़िल्में नहीं बनाई जा रही है | फिर भी भारत सरकार ने फिल्म निर्माण में श्रेष्ठता प्राप्त करने के उद्देश्य से दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान करने की व्यवस्था की है | राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में पुरस्कृत होने हेतु श्रेष्ठ कलात्मक फिल्मों का निर्माण होना आवश्यक है |
— संजय वर्मा ‘दॄष्टि