ऋतु मिलन की आस
रैन भई, चमके तारे, नभ पर, जैसे कि दीप जले
और , सुधाकर ने, बिखेर दी, स्निग्ध अमिय अवनि के तले।
रजनी की श्यामल चादर को ओढ़ धरा आवृत्त हुई।
चहक उठे, कानन के पंछी, वातायन कृतकृत्य हुई।
मलयानिल चहुं ओर बिखरती, आह्लादित करती जग को ।
स्वर्ग सदृश हो रही प्रतीति, प्रेम पथिक के रग रग को।
अर्ध रात्रि, निद्रित हर कोई, स्वप्न देखता, यौवन का।
वृद्ध व्यक्ति, तरुणाई का सुख, भोग रहे हैं जीवन का।
है मधुमास , मिलन की आस, विरह वेदना जिसे मिले।
रात्रि जागरण हुआ कष्टकर, त्याग न पाए शिकवे गिले।
है समाज की रीत जगत में, कर परिणय का सूत्र।
आनंदित हो मिलें युग्म बन, सभी पुत्री औे पुत्र।
— पद्म मुख पंडा