कहानी

कारीगर

ज्येष्ठ का महीना अपनी प्रचंड गर्मी को धरती को बाँटने में व्यस्त है। गर्म धरती के जैसे होंठ सूख रहे हैं पक्षी तुच्छ उड़ाने उड़कर पेड़ों की छाँव में दुबक रहे थे। घास के एक छोटे से टेल्ले में वह सुबह तपस के जागने से पहले ही बैठ गया है। पहले आते ही उसने सप्पड़ से निकले पत्थर का एक बार अपने हथोडे़ से कई बार किए फिर जब उसे तसल्ली हो गई कि इस पत्थर से उसके मतलब का सामान बन सकता है तो उसे लोहे की रोड से धकेल कर अपने ठिकाने पर टिका दिया।
कुछ ही पल में ज्येष्ठ की धूप पर जब सिर पर कहर बरसाने लगी तो तेज़ गर्मी से बचने के लिए उसने अपना काला छाता उठा लिया। वही छाता जिसमें कई छोटे छेद व कुछ बडे़ छेद भी पड़ चुके हैं। ऐसा लगता है कि काला छाता ठीक उसकी ही उम्र का हो गया है। उसने काले छाते को एक डंडे से बाँधा और छाते को खोल कर उसे डंडे से बाँध कर ठीक अपने सिर के ऊपर टिका दिया। वैसे ये धूप रुलदू को नहीं जला सकती, उसकी खाल भी पत्थर की है, धूप तो गोरे बदन को ही काला करती है। अपने पुराना रेडियो को अपनी ही परछाई में रख लिया और अपने सिर पर बँधे गमछे से ढक दिया ताकि उस पर धूल न गिरे। रेडियो ने बजना शुरू कर दिया था। उसके अंदर से निकल रही आवाजें़ रुलदू के हाथ के हथोड़े के छिणी पर पड़ने की आवाज़ से टकरा रही थीं। लोहे की छिणी पत्थर को खुरचती जा रही थी। हथोड़ा जैसे ही छिणी पर पड़ता, एक लकीर धूल उड़ाते हुई बनती जाती। वर्षों से यही काम करता आ रहा है वह। इन्हीं पत्थरों को तोड़कर उसने अपनी ज़िंदगी के भी हज़ारों टुकडे़ कर डाले हैं पर फिर भी टूटा नहीं है। वह बेहलड़ नहीं बैठ सकता, वह तो बचपन से ही बेहलड़ नहीं है। वर्षों से पत्थर तोड़ता आया है, इन्ही सप्पड़ों के पत्थरों को ज़मीन से निकाल कर कइयों के घरों में चिनवा चुका है।
धूप सिर के ठीक ऊपर आ गई थी उसके छाते ने अब परछाई किसी और दिशा में बना दी थी। रुलदू के हाथ रुक गए। वह उठा तो जैसे उसकी हड्डियों ने कड़कड़ाते हुए उसे उसके बुढ़ापे की कविता सुना डाली हो, हाथ घुटनों पर रखते हुए वह बड़ी देर टेड़ा ही खड़ा ही रहा। फिर कुछ पल के बाद सीधा होने की कोशिश की और जड़ जड़ करती हड्डियों ने अपना पुराना रूप धारण कर लिया।
बड़ी देर तक अविचल खड़ा वह एकटक किसी एक ओर ताकता रहा। बूढ़ी रोशनी खो रही निस्तेज आँखों ने क्या देखा और उसके माँसपिंड के साथ लगे सफेद अस्त व्यस्त बालों वाले सिर के भीतर क्या चलता रहा। ज्येष्ठ की भी दोपहरी को मंद हवा के झोंके इस सोलहसिंगी धार की तलहटी में बसे गाँव के रुलदु के शरीर को कुछ ठंडक दे रहे थे।
वह खैर के पेड़ पर लटके अपने थैले से परने में बँधी रोटियों को चबाने लगा, दूर खड्ड की ओर नज़रें डालता रहा और धूप से गर्म हुई चपातियों को भिंडी की सब्जी व लस्सी के साथ निगलने की कोशिश करता रहा। मन ही मन सोचता रहा-‘‘भाभी की बहू खूब मन से बनाती है खाना, वैसे उसकी अपनी बहू के हाथों में भी जादू था, पर उसके नसीब में अपनी बहू के हाथ का खाना नहीं रहा, काॅलेज की पढ़ी-लिखी लड़की भला कब तक खिलाती उसे, सफेद संगमरमर सी गोरी।’’ एकदम से रुलदु का मन उसकी मृत पत्नी राजो के पास दौड़ गया,‘‘वैसे राजो का रंग रूप भी तो कम न था। बस उसके बेटे ने कोर्ट मैरिज की थी, बेटा वकील बना और फिर बहू भी वकील साथ में नेता गिरी, और बस छप्पर में कभी बहू की झाँझर न खनकी। अच्छा किया बेटे ने वरना बहू यहाँ गाँव के छप्पर में कहाँ रहती और कहाँ सोती। वह कई बार शहर गया बेटे की शादी के बाद और अब तो शहर से भी नाता तोड़ आया है और बहू के सुख को भी ठोकर मार आया है।’’
खाना खाकर पानी की बोतल से हाथ धोकर परने को शीशम के पेड़ के नीचे बिछाकर पसर गया। धूप की चलकोर शीशम के पत्तों से निकलकर कभी-कभार उसके चेहरे पर पड़ रही थी पर वह कुछ देर मानो शांत मौन और ईश्वरीय उपहार के साए तले नींद की एक आध झपकी का इंतज़ार करते हुए घास के बिछोने पर पसरा रहा। कोई आधे-पौणे घँटे के बाद वह फिर उठ ही गया। डंडे से बंधी छतरी को फिर से अपने पास लगा कर फिर से परने को सिर पर बाँधा और छिणी व हथोड़े को उठाकर काम में डट गया। हथोड़े और छिणी के टकराव की वही टन-टन फिर शुरू हो गई।
छिणी पर जैसे ही हथोड़े की मार पड़ती और तब तक दूसरी पत्थर को खुरचती हुई छिणी एक आवाज़ निकलती। कभी हथोड़ा ज़ोर से पड़ता तो कुछ चिंगारियाँ भी पत्थर से धूल के कणों के साथ निकलती।
आखिर वह चकोड़ू ‘पत्थर का गोल तराशा आकार जो अनाज पीसने के काम आता है’ किसको बना रहा है, यह उसे खुद भी नहीं पता, उसे सिर्फ़ इतना पता है कि बस बचपन से बना रहा है। इन्ही पत्थरों के बनते आकारों ने उसकी मामूली ज़िंदगी को भी आकार दिया है, रुलदू राम कारीगर रहा है जो सप्पड़ के पत्थरों को सोई ज़मीन से निकालने का हुनर रखता है। वह सप्पड़ के पत्थर तोड़ने का माहिर था। अब अपने दो -खेतों में कंकर पत्थर ही मिलते थे तो फिर गाँव की ज़मीनों के अंदर छुपे सप्पड़ की कोड़ियाँ, घण और छिणियों की मदद से निकालता रहता, इसलिए माहिर तो बनना ही था।
किसी की भी ज़मीन हो, पहले जैसे ज़मीन की गंध सूंघकर वह दफन चट्टान की थाह ले लेता और फिर अपने घण छिणियों से उन्हें टुकड़े करके अपने मतलब के आकर बना लेता। बस इन पत्थरों को तोड़ते-तोड़ते उसकी जिं़दगी भी बहुत टूटी पर उसका हौसला पता नहीं उसके शरीर के कौन से हिस्से में छिपा बैठा है जो हर किसी को दिखाई नहीं देता।
यह चाहे साधारण जिं़दगी हो पर फिर भी उसने इसे जीया है, इन्हीं पत्थरों को तोड़ने से कमाया पैसा उसके परिवार को एक आकार दे पाया है। चाहे वह गरीब का गरीब रहा, पर उसका बेटा इतना नाम कर गया कि वह पढ़कर अब अपने लिए एक आसमान सुरक्षित कर पाया है। उसी आसमान के नीचे उसके पोते पोतियाँ घोंसले सजाएँगे, उड़ाने उड़ेंगे और अपना दाना दुनका चुगेंगे।
उसे अब किसी की परवाह नहीं, उसके बेटे ने छोटी जात के रंगों को धो डाला हैं पर वैसे भी ये रंग अब समाज पसंद नहीं करता और उसके ऊपर जो भाईचारे के रंगों में सजा समाज उसने देखा है उसे वह भूल नहीं सकता। ठाकुर, मैहर व पंडितों के घरों में कभी निरादर न हुआ, काम किया और पैसा अनाज जो मिल सकता था मिला, बस मेहनत की उसने और मेहनत का फल किसी ने मारा नहीं। पत्थरों का मिस्त्री रहा, कई गाँवों में इज़्ज़त पाई जो मिल सकता था उससे अधिक ही मिला, बस अब उसे कोई मलाल नहीं अपने पत्थर के भगवान से। भला भगवान से ये न मांगा था कि अंत अकेले में बीतेगा पर ये भी ईश्वर की ही मर्ज़ी होगी।
शाम होने का इंतज़ार उसने किया। शीतल हवा के झोंके ऊपर सोलहसिंगी धार से टकराकर उस ओर आ रहे थे उसने अपने कंधे पर अभी चकोडू उठाने को हुआ ही था कि गाँव के उसके हमजोली माधो ने आवाज़ लगा दी, ‘‘बस अब चलना पड़ना था घर की ओर रुलदू, यहाँ टेल्ले के सप्पड़ों में क्या ढूँढता फिरता है।’’
माधो घास का भारा नीचे रखकर उसके पास बैठ गया। रुलदू बोला, ‘‘भई माधो, अब अपना तो यही हुनर है और यही पेशा, मुझसे जब तक ईश्वर साँस नहीं छीन लेगा तब तक यही काम करुँगा।’’
माधो ने फिर टोंट कस दिया, ‘‘हाँ भई बेटा तेरा नेता है और तू कारीगर। अब तू पत्थरों से टक्करें मारता रह, तुझे घी कहाँ नसीब होगा।’’
‘‘भई तुम ठीक कहते हो,’’ रुलदू बोला, ‘‘बस अपनी-अपनी किस्मत है, अपना-अपना भाग, पर यह पुश्तैनी काम मुझे चैन से नहीं बैठने देता। ये छिणी हथोड़ा ओर बिखरे बेढंगे पत्थर मुझे पुकारते हैं कि मैं उन्हें तराशूँ। मेरी बाजुओं की नसों में जमता खून इस छिणी की आवाज़ से ही रगों में तेज़ दौड़ने लग पड़ता है। बापू ने ऐसा काम सिखाया था बचपन में कि बस यही काम मेरी आत्मा में दौड़ता है, और कुछ तो मुझे आता नहीं। पर तू सुना तेरे को चैन है न! तू तो लंगोटिया यार है मेरा, देख जमाना बदल रहा है पर अब हम कितना बदले। सुना है तेरी बहू भी शहर चली गई है बच्चों को पढ़ाने।’’
माधो बोला,‘‘वैसे ठीक ही है अब अकेले बूढ़ों को चैन तब तक नहीं पड़ता जब तक अपने खेत, मिट्टी में गोते न लगाए और तू भला बेटे के पास जाकर, वहाँ पक्की ज़मीन से क्या पत्थर ढूँढता। यहाँ चैन है तुझे भी, पर एक बात है पुराना जमाना ही ठीक था, दो चार लड़के तो इधर-उधर ही मंडराते फिरते, एक आध बाहर चला भी गया तो भी बहुओं के हाथ का खाना मिलता रहता।’’
‘‘बात तेरी ठीक है, पर हम बदलते जमाने के बीच के बूढ़े हैं न इधर के न उधर क हैंे। अब जो है गुज़ार लो पता नहीं आने वाले समय में बुड्ढों की पैदावार भी होगी या फिर इन सप्पड़ों की तरह ज़मीन में दफ़न हो जाएँगे।’’
दोनों हँस दिए। माधो बोला ‘‘वैसे रुलदुआ, हमें खीर खाने नहीं आ रही है देख तू अपना हाल, बेटा तेरा नेता और तू इधर लोगों के टेल्ले में पत्थर ढूँढता फिरता है।’’
‘‘तू हठ फिरकर मेरे पिछे ही क्यों पड़ जाता है।’’
‘‘अच्छा तेरी मजीऱ्, तू जैसे मर्ज़ी रह ले, पर जब तक हमारी दाल गलेगी, हम पकाते रहेंगे। मैं यही तो कहता हूँ कि पत्थरों को तो तू तराश सकता है, पर हमारी जिं़दगी को तराशने वाले के पास हमारे लिए टैम नहीं है।’’
माधो सिर पर भारा उठाकर चलता बना और बूढे़ कारीगर ने बड़ी मुश्किल से चकोडू कंधे पर रखा और घिसटता हुआ घर की ओर निकल गया।
सूरज डूब चुका था। रुलदू ने आँगन से नया बना चकोड़़ू कंधे पर उठाया और अपने ही गाँव के ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा। एक चकोड़ू ठाकुर के आँगन में रखकर फिर से अपने घर की ओर मुड़ा और दूसरा भी ठाकुर के आँगन में रखकर बाहर कंधे पर रखे परने से पसीना पोंछते हुए प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ गया। ठकुराइन अंदर से बाहर निकली और पानी का गिलास पकड़ाते ही बोली, ‘‘चाह बनाती हूँ, वैसे रुलदुआ, तेरी ज़िंदगी पत्थरों से टकराकर पत्थर ही बन गई है। बेटा बहू आए तो नहीं होंगे वरना तू कहाँ निकलता घर से। अच्छा पैसे वैसे भी भेजते हैं कि बस नेतागिरी ही चलती है उसकी।’’
रुलदू बोला, ‘‘जी सब आप लोगों का आर्शीवाद है। पैसे मैंने क्या करने, रोटी पानी चल रहा है।’’
‘‘पर तू बुरा न मानना, तुझे भी साथ ले जाता तो इस उम्र में तू अपने हाथ न फूँकता। अब राजो होती तो मैं यह न कहती, पर तेरा दुख बड़ा घणा हो रहा है रुलदू।’’
‘‘बस ठकुराइन, ईश्वर का खेल है पर मैं मजे़ में हूँ अब तुझसे तो कुछ न छिपा है, वहाँ उनके पास रहूँगा तो अपने ही पत्थरों में चिन जाएगी मेरी रूह। यहाँ मजे़ में हूँ , वो तो कहते थकते नहीं।’’
‘‘वैसे रुलदू तूने भी पूरा अपने आप को पत्थर का गूगा ही बना लिया है अब चाहे तुम्हें कोई कितना ही रोट चढ़ा ले, तुम्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
‘‘बस ठकुराइन, पत्थरों से टकराया जिं़दगी भर तो अब पत्थर तो ही बनूँगा, बस अब कोई भगवान् का दूत आए और मुझे छिणी घण से तोड़ कर धूल बना दे।’’
‘‘चुपकर ओए! अभी भी तेरी इन बूढ़ी हड्डियों में बड़ी जान दुबकी है, हौसला रखा कर। ज़िंदगी जीने के लिए कलेजा पत्थर की तरह बनाना पड़ता है इस बात को तुझसे और अधिक कौन जान सकता है। अच्छा रोटी बना-खा लिया कर, भूखे न मरना, अब पता नहीं तेरी बूढ़ी हड्डियों को अन्न का रस चूसने की आदत भी है। वैसे तेरी भाभी बड़ा ख़्याल रखती है तेरा, मैंने सबके मँुह से सुना है। ये भिण्डियाँ ले जाना, अपनी भाभी को दे देना, अब मैं तो दाल बनाऊँगी, पर तब तक तू कहाँ रुकेगा।’’
रुलदू बोला, ‘‘मैं तभी तो कहता हूँ ठकुराइन, ये भाई चारा जो यहाँ मिलता है, वह बेटे के पास शहर में कहाँ मिलेगा। अभी गया था न पिछले महीने पोते के मुंडन पर, तो वहाँ तो बड़े बड़े लोग घूम रहे थे, मैं बेचारा कुर्सी पर बैठा एक कोने में दुबका रहा। नया सूट तो जाते ही बहू ने पहना दिया पर उस सूट को पहनकर मुझे घुटन होती रही।’’
‘‘अब तुझे तो घुटन होगी ही, बेटा तुम्हारा बड़ा नेता है और तू अपनी ज़िद का मारा, घुटन तो तुझे होगी ही। झोंपडे़ के इर्द गिर्द दाने चुगने वाले पंछी सीमेंट के पक्के आंगन में दाने नहीं ढूँढते। वैसे तुझे तो मान होना चाहिए कि तेरी मेहनत की कमाई ने उसे ऐसी जगह पहुँचा दिया, जहाँ कोई आम आदमी नहीं पहुँचता। सब तेरे कर्मों का फल है, पर दुख एक ही है कि तेरी पत्नी राजो यह सुख न देख सकी, वह होती तो उसका रंग अलग ही होना था और तेरे मन के सूखे पत्थरों में भी अँकुर उगते रहने थे।’’
रुलदू खुश होकर बोला, ‘‘बस ठकुराइन तुने मन हल्का कर दिया, दिल तेरा अच्छा है। सब समझती है, अच्छा मैं निकलता हूँ ।’’
रुलदू शांत मन से अपने छप्पर की ओर निकल गया। अँधेरा उसके सिर पर उसके साथ-साथ चलता रहा। अपने पुराने छप्पर के कच्चे आँगन पर लगाए अपने ही चक्कों को देखकर उसका मन ठंडी हवा के झोंके संग दूर भूतकाल के नखलिस्तान में पहुँच गया। वह बाहर अपने मंजोलू पर पसर गया, पड़ोस से किसी की रसोई में जलते तड़के की खुशबू उसके नथुनों में घुस गई तो जैसे उसे लगा कि उसके शरीर में भी एक पेट पलता है। रुलदू चाहे अकेले हो, पर रोटी पाणी उसे उसके छोटे भाई की पत्नी और बहू दे जाती है, बेटा बात कर गया है उसका। जब रुलदू की ज़िद नहीं पिघली थी तो फिर इकलौते नेता बेटे ने अपनी चाची के आगे हाथ जोड़ दिए थे। वह बोला था, ‘‘अब तुम तो सब जानती हो चाची, पर मैं भी तेरी मीठी रोटियों से पला हूँ माँ तो तभी चल बसी थी जब मैं 10 वर्ष का था। इसलिए अब एक ओर गुजारिश है कि मेरे बाप को देा जून का खाना तू दे दिया कर तो मैं अपनी ओर से बेफिकर हो जाऊँगा। अब बापू के नसीब में अपनी बहू के हाथ का खाना नहीं है। और ऊपर से हम अब इस आसमान से उड़ गए हैं।’’ इतने बड़े नेता को हाथ जोड़े चाची ने क्या देखा कि घी में चुपड़ी रोटियां रुलदू का नसीब बन गई ।
रुलदू एकदम से उठा और ठकुराइन ने जो भिंडियांे के पाँच छःह दाने दिए थे उन्हंे काटने लग पड़ा ताकि अपनी भाभी को काटकर दे आए। एक प्याज का टुकड़ा काटा तो आँखों में पानी आंसू बनने का प्रपंच करने लगे। वह परने से आंसू पोछते हुए मन में बोला, ‘‘अब इन आंखों में किसी गहरे सूखे कुएं में पानी की चार बूंदे क्या आ गई कि ये छलकने को हो गए। नहीं भाइयों तुम्हारी जरूरत नहीं अब बाबड़ी सूख चुकी है अब तो नलके में पानी का इंतजार करते हैं हम। सब बदल गया बड़ी जल्दी, एक सदी भी न लगी, जिस तरह से उसके तराशे पत्थर दीवारों में चिनकर वर्षों के लिए दीवार बन गए, मकान बन गए। वह तो अब तक किसी आकार मैं न ढाल पाया जिंदगी को। ठाकुरों के मकान, मैहरों के घर उसके ही तो तराशे पत्थरों को निकालकर बने हैं। इन्हीं पत्थरों को पहले ज़मीन की कोख से निकला और एक- एक को तराशा फिर बसेरे बनते गए। महीना भर पहले ही उसे बुलावा आ जाता था उसे। एक-एक पत्थर को तराशता और फिर वही पत्थर दीवार की शोभा बन जाते। कितनी खुशी मिलती थी उसके कि उसका हुनर किसी के घर आंगन की दीवारों में बंध गया है जो छांव देगा, सपनों को ख़्वाइशों को बुलाएगा।’’
चक्के, कुंडियाँ, चकोडू़, तराशे हुए पत्थर सब बनते हैं इसी सप्पड़ से निकले करसाल के पत्थर से। अपनी जवानी के समय में तो वह दूर-दूर के गाँवों तक भी जाता था। किसी ने नया खेत बनवाना है है और खेत में सप्पड़ हल के नीचे आ रहा हो तो पहले घण और कई तरह की छिणियों से उस सप्पड़ को फाड़ कर निकाला जाता। और सप्पड़ को तराश कर पत्थर बनते जो मकानों की चिनाई के काम आते।
एक दिन फिर एक बड़ी गाड़ी रुलदू के स्लेटों के छप्पर के पास खत्म होती पक्की सड़क पर रुकती है। पक्की सड़क जो कभी दलदल हुआ करती थी, पर रुलदू के नेता बेटे ने उसे सीमेंट से पक्का करवाया था। रुलदू को ले जाने को बेटे ने ड्राइवर भेजा था। अब फोन रुलदू रखता नहीं तो भला क्या उसके पुराने रेडियो पर खबर भेजते कि तैयार रहना कि उसके पोते का जन्म दिन है। वैसे भी रुलदू का इकलौता बेटा बड़े सालों के बाद हुआ था और अब पोते का पहला जन्म दिन था। रुलदू ने धुला हुआ कुरता पायजामा डाल लिया। पैरों में वही बूट जो उसने आज फिर निकाल लिए थे जो पिछले वर्ष बहू ने दिए थे। बस रुलदू गाड़ी में बैठ गया था। दरवाजे़ पर ताला लगाकर भाभी को संदेशा सुना आया।
रुलदू के घर के बाहर तराशे हुए पत्थरों का ढेर बन गया था बहुत बड़ा ढेर बस यही ढेर अब रुलदू को घूरता रहता। रुलदू का आंगन सिकुड़ रहा था ठीक वैसे ही जैसे रुलदू का मांसपिंड सिकुड़ रहा है। उसकी सूखती नसें शरीर पर लकीरें बना रही है यही लकीरें फिर पगडंडी बना रही है बस किसी दिन एक पगडंडी पर रुलदू भी अपने काले छाते को छोड़कर निकल जाएगा।
रुलदू की जिद़ अब उसका इम्तिहान लेने लग पड़ी है। उसकी बूढ़ी हड्डियों में खून सूख रहा है। साँस की बीमारी बढ़ रही है। सर्दियों का एक ठंडा दिन था। धूप ने रुलदू के घर व आसपास के टेल्लों के आसमान से मुँह तो मोड़ा ही था, साथ में पूरी घाटी धुंध की पतली लकीर में कैद थी। आज रुलदू सुबह ही गांव में मैहर के टेल्ले में पत्थर निकालने का विचार लिए चल पड़ा था। वह पिछली शाम को ही बात कर आया था। वैसे भी आजकल गेहूँ के खेतों का साम्राज्य फैला है, लोग ज्यादा व्यस्त नहीं है।
रुलदू सुबह ही निकल गया था टेल्ले की ओर। चहँु ओर घास पहले ही कट गया था। घास की नई कोपलें ज़मीन से निकलने का अपना हुनर पेश कर रही थी। रुलदू के कमज़ोर शरीर ने उसे रोका। किसी मोर ने दूर से आवाज़ निकाली, ‘‘अब बस कर रुलदू, क्या किसी पत्थर को न छोड़ेगा, अब बस कर।’’
धुंध ने उसके सिर के इर्द गिर्द मंडराकर उसे चैन से बैठकर घर जाने की सलाह दी। और अपनी बूढ़े माँसपिंड में दौड़ने वाले रक्त के ज़मने का इशारा किया। रुलदू ने भारी घण से जैसे ही पहली चोट मारी, छिणी पत्थर से उखड़ कर दूर घास में छिप गई। रुलदू झुका और बस एक अँधेरे ने जैसे उसे पीछे से उसकी दोनों बाजुओं को कस कर अजगर की तरह जकड़ लिया। फिर जैसे उसके कलेजे में किसी ने छिणी रखकर ऊपर से घण से चोट कर दी हो। एक बूढ़ा के दर्द की आवाज धुंध में सिकुड़ी घाटी के चारों कोनों तक कुछ दूर तक दौड़ी और थककर वहीं धुंध में किसी बड़े पत्थर पर आराम करने बैठ गई। रुलदू वहीं लुढ़क गया था। उसके घण, हथोड़ा एक ओर गिरकर खामोश हो गए थे। तीन छिणीयाँ पत्थर पर फँसी थी, पर उन पर अब कौन घण से वार करे। कारीगर तो धुंध के उजाले में ही चिर निंद्रा में सो गया था।
रुलदू का क्रिया करम करने के बाद नेता बेटे के आदमियों ने चहुँ ओर बिखरे तराशे पत्थरों को समेटा और टैªक्टर में डाला और अपनी कस्बे वाली कोठी में ले गए पत्थरों की चिनाई होने लगी। मंदिर जैसा आकार बनने लगा। फिर उसी मंदिर में रुलदू राम की एक पत्थर की मूर्ति सज बैठी थी। कुछ ही दिनों में उस मूर्ति को हार पहना दिया गया था और नीचे तराशे हुए संगमरमर पर कुछ शब्द उकर आए थे। जिस पर लिखा था महान कारीगर स्वर्गीय रुलदू राम की याद में।

 

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857