किसान आंदोलन का विरोध मानसिक दिवालियापन का द्योतक
जब पूरा विश्व कोरोनावायरस संक्रमण से आक्रांत था उसी समय भारत सरकार खेती किसानी से जुड़े तीन अध्यादेश लाकर भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी हिस्सेदारी रखने वाली कृषि क्षेत्र को नेस्तनाबूद करने पर तुली हुई है ऐसा किसानों का मानना है।जब पूरा विश्व महामारी से परेशान था और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। इस महामारी से लाखों लोगों ने प्राण गंवा दिए।विश्व के कई देशों की अर्थव्यवस्था रसातल में चली गई।भारत की अर्थव्यवस्था तो इस महामारी के पहले से ही डावांडोल चल रही थी जिसे कोरोनावायरस उत्पन्न महामारी ने आईसीयू में पहुंचाने का काम किया।सरकार लगातार कई राष्ट्रीय कंपनियों एवं परिसंपत्तियों को निजीकरण और विनिवेशीकरण के माध्यम से पूंजीपतियों के हाथों में सौंप कर किसी तरह से सरकारी खर्च चलाते हुए अर्थव्यवस्था को संभालने के कोशिश में लगी हुई।संभवत इसी के मध्यनजर तीनों अध्यादेश लाए गए होंगे।पर इस अध्यादेश को लाने से पहले इससे जुड़े हुए लोगों यथा किसान,कृषि विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिकों एवं आम लोगों से व्यापक विचार-विमर्श नहीं किए जाने के कारण इस अध्यादेश के तहत जो मसौदा तैयार किया गया वह किसानों के लिए लाभकारी होने की जगह और अलाभकारी बन गया।
भारत सरकार द्वारा पिछले महीनों आनन-फानन में जिस तरह से बिना व्यापक विचार विमर्श के तीन कृषि संबंधित अध्यादेश देश पर थोप दिया गया और जिसे बाद में संसद में बिना व्यापक चर्चा के हो-हल्ला के बीच ध्वनि मत से पारित घोषित कर दिया गया यह देश के लिए दुर्भाग्यशाली सिद्ध हो रहा है। इन कानूनों को लागू करने से पहले न तो विपक्ष को विश्वास में लिया गया न ही देशवासियों से इस पर विचार मांगा गया। विपक्ष समेत देशवासियों का अनादर किया जाना चिंता का विषय है। अगर सरकार अध्यादेश लाने के बावजूद संसद से कानून को पारित करने से पहले व्यापक विचार विमर्श सदन और देश के पटल पर की होती तो आज यह माहौल उत्पन्न नहीं होता।जहां देश के करोड़ों किसान इसके विरोध में ठंड के बावजूद सड़कों पर डटे हुए हैं। जिनको देश के बहुत बड़े तबके का समर्थन हासिल है।यही नहीं किसानों के संवैधानिक आंदोलन को देश दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं द्वारा समर्थन प्राप्त है।इसके बावजूद भी सरकार के द्वारा सहानुभूति पूर्वक विचार करने की जगह किसानों के साथ शक्ति दिखाया जाना किसी भी नजरिए से सही नहीं लगता। जब किसानों को किसान संबंधित कानून से लाभ नहीं दिख रहा है और उनकी एकमात्र मांग है यह कानून वापस ले लिया जाए तो फिर सरकार आखिर किस मजबूरी में यह कानून देश पर थोपना चाह रही है समझ से परे है। देश के तमाम किसान,किसान संगठन,मजदूर संगठन, कर्मचारी संगठन,बुद्धिजीवी,मानवाधिकार संगठन इस कानून को वापस लिए जाने का समर्थन कर रहे हैं।फिर भी सरकार अपनी जिद पर अड़ी हुई है।जिसका समर्थन मीडिया के गिने चुने लोग और सरकार में बैठे राजनीतिक दल के कुछ समर्थक कर रहे हैं।
यहां समझने वाली बात है कुछ लोग कृषि का मतलब सिर्फ खाद्यान्न फसल के उत्पादन को समझते हैं और उन्हें लगता है खाद्यान्न उत्पादक ही केवल किसान हैं पर उन्हें मालूम होना चाहिए फल फूल सब्जी मसाला जड़ी बूटी दूध अंडा मांस मछली आदि के उत्पादक भी किसान ही हैं और इन सब पर कृषि कानून का दुष्प्रभाव पड़ने जा रहा है।जिसका दुष्परिणाम देश में आसमान छूती महंगाई के रूप में सामने है।
इस कृषि कानून के तहत तीन कानून बनाए गए हैं जिसके अंतर्गत पूंजीपति व्यवसायियों को असीमित मात्रा में भंडारण की छूट,खेती में पैसा लगाने की छूट जिसे वायदा कारोबार का नाम दिया गया है और किसानों के साथ सीधे कृषि उपज खरीदने की छूट का कानून शामिल है। इसके अंतर्गत मंडी व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है। असीमित जमाखोरी करने की छूट व्यवसायियों और बिचौलियों को मिलने वाला है।जिससे देश के उत्पादक वर्ग को
दोतरफा मार झेलना पड़ेगा।सर्वप्रथम उन्हें अपने उत्पाद गिने-चुने बड़े पूंजीपति व्यवसायियों के हाथों ओने पौने भाव पर बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा और जब वही कृषि उत्पाद पूंजीपतियों के गोदामों में पहुंच जाएगा फिर वे बाजार में कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर मनमानी कीमत पर बेचेंगे। हम सभी जानते हैं जब किसान फसल उत्पादित करते हैं उस समय भंडारण की सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण कृषि उत्पाद सड़क पर फेंकना पड़ता है।पर जब वही वस्तु जब गोदामों से आने लगता है तो कीमत आसमान छूने लगता है।नया कानून इसको बढ़ावा देगा। पूंजीपति अभी खेती किसानी को अपने चंगुल में रह रहे हैं कल इसका प्रभाव अंडा फल फूल सब्जी मांस मछली पर पड़ेगा जिसका भार अंततः किसानों और इसके उपभोक्ताओं पर होने वाला है।
कृषि कानून के एक प्रावधान में वायदा कृषि का प्रावधान की लागू करने की बात की गई है जिसके अंतर्गत पूंजीपति अपना पैसा खेती किसानी में लगाएंगे और वे अपनी इच्छा के अनुरूप किसानों से खेती करने को कहेंगे जिसका मतलब है किसान अपने ही खेतों के मालिक के जगह मजदूर बनकर रह जाएंगे।
कृषि विशेषज्ञों का मानना है अमेरिका और यूरोपीय देशों में 1960 के दशक में ही वायदा कृषि व्यवस्था लागू किया गया था जो की पूरी तरह से असफल हुआ वहां के किसानों की आमदनी बढ़ने की जगह लगातार घट रही है।इस बात को जानते हुए भी सरकार आंख मूंदकर पूंजी पतियों के दबाव में कानून लाई है। वायदा कृषि को हम लोग बिहार के चंपारण में किए जाने वाले तिनकठिया कृषि प्रणाली के रूप में समझ सकते हैं जिसके अंतर्गत अंग्रेजी द्वारा किसानों को अपने कुल खेती के तिहाई हिस्से पर नील की खेती करने को मजबूर किया जाता था वही हालात वादा कृषि के अंतर्गत पैदा होने वाला है।
देश में लगभग 85% किसान सीमांत किसान है जिन के अधिकारों के संरक्षण की कोई बात इन विधायकों के अंतर्गत नहीं किया गया है इन किसानों के पास इतनी भूमि नहीं है कि वह बड़े पूंजीपति और व्यवसायियों के साथ सम्मानजनक डील करने की क्षमता रखते हैं उन्हें उनके सामने अपनी बात कहने की हिम्मत भी नहीं होगी।
बिहार में 2006 से एपीएमसी कानून लागू है जिसके कारण पूंजीपति व्यापारी बिहार से सस्ते दाम पर खाद्यान्न खरीद कर पंजाब और हरियाणा के मंडियों में निर्धारित एमएसपी पर बेच देते हैं क्योंकि वहां एपीएमसी मंडियों का जाल बिछा हुआ है।अगर सरकार किसान हित के बारे में सोच रही है तो एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बनाने से दूर क्यों भाग रही है इस पर उन्हें जवाब देना चाहिए।
इन कृषि कानूनों के माध्यम से भारतीय कृषि प्रणाली का पश्चिमीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है।परंतु सरकार को जानना चाहिए भारत सघन जनसंख्या वाला देश है कृषि यहां व्यवसाय नहीं जीवन यापन का मुख्य साधन है आज भी भारत के 70 फ़ीसदी से अधिक जनसंख्या जीवन यापन के लिए कृषि पर आधारित है।यही नहीं भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान कृषि और कृषि से संबंधित क्षेत्रों का ही है जिसे नजरअंदाज किया जाना कतई सही नहीं माना जाएगा। अगर यह व्यवस्था लागू कर दिया जाएगा तो उत्पादक के साथ-साथ सरकार का भी कृषि उत्पादन पर से नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो जाएगा।जिसका लाभ पूंजीपति व्यवसाई उठाएंगे और देश को पूंजीवाद की आग में झोंकने का काम करेंगे। जिससे कृषि से जुड़ी हुई पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाएगा।
उपरोक्त आशंकाओं को देखते हुए ही आज करोड़ों किसानों के साथ-साथ आम जनता बुद्धिजीवी मानवाधिकार समर्थक कृषि कानून वापस लिए जाने पर जोर दे रहे हैं और इसके लिए हर मोर्चे पर आंदोलनरत हैं।जिसको देश विदेश हर स्तर पर समर्थन प्राप्त है। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने की छूट है सरकार भी अपनी तरफ से किसानों को और अन्य देशवासियों को समझाने का लगातार प्रयास कर रही है वहीं दूसरी ओर आंदोलनरत आशंकाओं से घिरे किसान अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं।लेकिन इन सबों के बीच सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात जो उभरकर देश और दुनिया के सामने आ रही है वह यह है कि पिछले कुछ वर्षों से भारत में एक चलन हो गया है जिस किसी चीज का विरोध चाहे वह छात्रों द्वारा बुद्धिजीवियों द्वारा मजदूरों द्वारा कर्मचारियों द्वारा पत्रकारों द्वारा व्यवसायियों द्वारा कलाकारों द्वारा किया जाता है उसको बिकाऊ विपक्ष के एजेंट विदेशी ताकतों के इशारों पर चलने वाला ही नहीं देशद्रोही और राष्ट्र विरोधी तक कहने का चलन हो गया है जो मानसिक दिवालियापन का द्योतक है। इस तरह की भाषा लोग सरकार में और संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग भी हैं जो अपने ही देशवासियों के देशभक्ति पर सवाल उठा रहे हैं जो कि उनकी विखंडनवादी मानसिकता को दर्शाता है। लोकतंत्र में सबको अपनी बातें कहने और मनवाने के लिए आंदोलन करने की छूट प्राप्त है फिर सत्ता पोषित कुछ लोग इस तरह के बात बोलकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं इस तरह के प्रवृत्ति पर अविलंब रोक लगाए जाने की जरूरत है। अगर कुछ लोग गलत है तो उन पर कानून सम्मत कार्रवाई की जाए न कि हर आंदोलन को देशद्रोही लोगों का भीड़ घोषित कर दिया जाए इसका दुष्परिणाम बहुत व्यापक हो सकता है इससे बचने की जरूरत है।
— गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम