कविताएँ
1.
गाँवों में माएँ
अब सुबह-सुबह ही
धुप को छत से उतार कर
आँगन के किसी कोने में रख देती हैं
और इंतज़ार करती हैं
शाम का और अँधेरे का
ताकि कुछ दिख ना सके
ना ही
पति के मरने का चीत्कार
बेटे के वापस ना आने की जलती हुई आस
बहुओं और पोते-पोतियों की चुप होती किलकारियाँ
और
अपने अकेलेपन का तांडव
2.
चौदह करोड़ देवता
जो रोज़ पूजे जाते हैं
लेकिन फिर भी सब मिलकर
इस मुल्क की गरीबी और भुखमरी को
दूर नहीं कर पाते हैं
इतने पर भी जनता
हर पाँचवें साल
नए देवता का चुनाव करने लगती है
या तो जनता
तरसने की आदी हो गई है
या फिर
सारे देवता तरसाने के आदी
— सलिल सरोज