वेदज्ञान सृष्टि में विद्यमान ज्ञान के सर्वथा अनुकूल एवं पूरक है
ओ३म्
हमारी सृष्टि ईश्वर की रचना है। यह ऐसी रचना है जिसकी उपमा हम अन्य किसी रचना से नहीं दे सकते। ऐसी रचना ईश्वर से अतिरिक्त कोई कर भी नहीं सकता। परमात्मा प्रकाशस्वरूप एवं ज्ञानवान् सत्ता है। ज्ञानवान होने सहित परमात्मा सर्वशक्तिमान भी हैं। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तयामी एवं सर्वज्ञ हैं। ईश्वर अनादि व नित्य होने से स्वयंभू सत्ता है। ईश्वर के माता-पिता व रचयिता कोई नहीं है। वह ही सब जीवों वा प्राणियों का माता, पिता तथा आदि व सान्त पदार्थों को बनाने वाला है। ईश्वर के समान हमारी आत्मा भी अनादि व नित्य है तथा मूल प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों वाली है, वह भी अनादि व नित्य है। इसका कभी अभावरूपी विनाश नहीं होता। यह सदा से है और सदा रहेगी। ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादि व नित्य होने से परमात्मा अनादि काल से प्रकृति रूपी उपादान कारण से सृष्टि की रचना, पालन व इसकी प्रलय करते आ रहे हैं। इस सृष्टि की रचना जीवों को सुख व कल्याण के लिये होती है। जीवों के पूर्व जन्म के जो अवशिष्ट कर्म होते हैं उनका सुख व दुःख रूपी भोग कराने के लिये ही परमात्मा सृष्टि की रचना करते हैं। सृष्टि प्रवाह से अनादि है, इस सिद्धान्त से जीवात्मा के जन्म व मरण तथा पूर्वजन्म व पुर्नजन्म का सिद्धान्त भी पुष्ट होता है। हम सब जीव अनादि व नित्य हैं अतः हमारा अस्तित्व सदा बना रहेगा और हम जन्म व मरण के चक्र में बन्धे होकर भी कभी मुक्ति में और कभी जन्म-मरण के बीच स्थित रहेंगे। मुक्ति ही जीवात्मा का लक्ष्य है। मुक्ति को प्राप्त होकर जीवात्मा के सभी क्लेशों व दुःखों का नाश हो जाता है और वह जन्म-मरण से छूट कर परमात्मा के सान्निध्य में रहकर सुख व आनन्द का भोग मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब से अधिक वर्षों तक करते हैं।
परमात्मा सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होने से इस सृष्टि की रचना करते हैं। ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान होने से ही यह सृष्टि बनती है। वेदों में ईश्वर की सर्वज्ञता के सिद्धान्त व सर्वज्ञ परमात्मा से प्राप्त अन्यान्य सिद्धान्तों को जानकर ही हमें ईश्वर व सृष्टि का ठीक ठीक बोध होता है। वेदों में सृष्टि की रचना से लेकर प्रलय तक और मनुष्य जीवन के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला गया है जो आज भी सर्वांश में ठीक ठीक वैसा ही घट रहा है तथा हमारे लिये आवश्यक, महत्वपूर्ण, सार्थक एवं प्रासंगिक है। ईश्वर की इसी सामर्थ्य से ही वेदज्ञान का ईश्वर से प्रकट होना सिद्ध होता है। हम प्रतिदिन सन्ध्या करते हैं जिसमें अघमर्षण मन्त्रों में सृष्टि की रचना का वर्णन है। ऐसा वर्णन संसार के किसी साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। कोई मनुष्य व लेखक बिना वेद की सहायता के ऐसा वर्णन कर भी नहीं सकते। इसका कारण यही है कि सृष्टि से पहले कोई मनुष्य देह व इन्द्रियों सहित उपस्थित नहीं थे। मनुष्यों के शरीर सृष्टि की रचना के बाद ही बनते हैं। प्रलय अवस्था में सभी जीव सुषुप्ति अवस्था में निद्रालीन रहते हैं। अतः प्रलय व प्रलय के बाद सृष्टि की रचना का वर्णन परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता।
परमात्मा ने सृष्टि की रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि ईश्वर जगत का उत्पादक है। ईश्वर सब जगत का धारण व पोषण करने वाला तथा सबको वश में करने वाला है। ईश्वर के ज्ञान में जैसा जगत् रचना का ज्ञान था और उसने पूर्वकल्पों में जैसी सृष्टि की रचना की थी और जैसे जीवों के पुण्य व पाप थे, उसके अनुसार ही उसने मनुष्यादि प्राणियों के देह और इस जगत को बनाया है। अघमर्षण के 3 वेदमन्त्रों में बताया गया है कि जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश परमात्मा ने रचा था वैसा ही इस कल्प में भी रचा है। जैसी हमारी पृथिवी प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है जिसे हम आकाश के नाम से जानते हैं, इस सर्वत्र फैले व व्याप्त आकाश के बीच में ही सब लोक लोकान्तर व सूर्यादि लोक स्थित हैं। उन सब लोक लोकान्तरों को भी ईश्वर ने ही रचा है। वेदों में कहा गया है कि जैसे अनादिकाल से लोक लोकान्तरों को जगदीश्वर बनाया करता है वैसा ही अब भी अर्थात् वर्तमान सृष्टि को भी उसने ही बनाया है। वह आगे भी इसी प्रकार सृष्टि की रचना करेगा।
ईश्वर का ज्ञान सदैव एक जैसा एकरस रहता है। वह विपरीत कभी नहीं होता। उसमें ह्रास व वृद्धि नहीं होती। ईश्वर के ज्ञान में उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से ईश्वर के लिये ‘यथापूर्वमकल्पयत्’ पद का ग्रहण किया जाता है। उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व रचे थे वैसे ही बनाया है। यह शंका की जा सकती है कि ईश्वर ने किस पदार्थ से इस सृष्टि की रचना की है, इसका उत्तर है कि ईश्वर ने अपने अनन्त सामथ्र्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित और सब जगत् के बनाने की सामग्री ईश्वर के आधीन है। ईश्वर ने अपनी उसी अनन्त ज्ञानमय सामथ्र्य से सब विद्या का खजाना वेदशास्त्र को प्रकाशित किया है जैसा कि उसने पूर्व सृष्टि में प्रकाशित किया था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा।
सृष्टि रचना का उपादान कारण प्रकृति नामी पदार्थ है। यह प्रकृति त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज और तम गुणों से युक्त है। इसके नाम अव्यक्त अव्याकृत सत् प्रधान और प्रकृति हैं। यही स्थूल और सूक्ष्म जगत का कारण है। यह कार्यरूप होकर पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुआ है। उस परमेश्वर की सामथ्र्य से ही जो प्रलय के पीछे एक हजार चतुर्युमी के प्रमाण से रात्रि कहलाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही उत्पन्न होती है। ऋग्वेद का प्रमाण है कि जब जब सृष्टि विद्यमान होती है उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है और उसी अन्धकार में सब जगत के पदार्थ और सब जीव ढके हुए रहते हैं। उसी का नाम महारात्रि है। तदनन्तर परमेश्वर की उसी अनादि व नित्य सामथ्र्य से पृथिवी और मेघ मण्डल में जो महासमुद्र है वह भी पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है। उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर अर्थात् क्षण, मुहूर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवी पर्यन्त जो यह जगत् है, वह सब ईश्वर के नित्य सामथ्र्य से ही प्रकाशित हुआ है। ईश्वर सबको उत्पन्न करके सबमें व्यापक होकर अन्तर्यामीरूप से सबके पाप पुण्यों को देखता हुआ पक्षपात छोड़ के सत्य न्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है। वेदों में दिये उपर्युक्त वर्णन के पश्चात ऋषि दयानन्द महाराज कहते हैं कि ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, कर्म और वचन से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है। इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें (अन्यथा वह दण्ड के भागी होंगे। उन दुःखों से बचने के लिये पापकर्म न करना ही उन सबके लिए श्रेयस्कर है।)
वेदों में सृष्टि की उत्पत्ति वा रचना का जो वर्णन है वह ज्ञान व विज्ञान के अनुरूप है। इसे ही सबको जानना व मानना चाहिये और वेदों में वर्णित ईश्वर व वेदज्ञान को स्वीकार करना चाहिये। चार वेदों में मनुष्य के जीवन को सुखी व उन्नत बनाने के अनेक उपाय बताये गये हैं। वह सब भी मनुष्यों को पापों से मुक्त कराने सहित पुण्य कर्मों का संचय कराने वाले हैं। पंच महायज्ञों को करके भी मनुष्य दुःखों से मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ होते हंै। इस कारण सभी मनुष्यों को पंचमहायज्ञों को अवश्य ही करना चाहिये। वेदों का अध्ययन कर यह विश्वास होता है कि वेदों के सभी वर्णन हमारी सृष्टि के सर्वथा अनुकूल हैं। वेद ज्ञान व विज्ञान का पर्याय है। वेदों में अज्ञान व अन्धविश्वास की कोई बात नहीं है जैसी की अन्य मत-मतानतरों के ग्रन्थों में मिलती हैं तथा जिसकी वर्णन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के उत्तरार्ध के चार अध्यायों में हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि वेद और हमारी सृष्टि परस्पर पूरक एवं सर्वथा अनुकूल हैं। हमें वेदेां का अध्ययन कर वेदज्ञान को प्राप्त होकर उसके अनुसार ही आचरण एवं व्यवहार करना चाहिये। वेदानुसार जीवन बनाना, आचरण व व्यवहार करना ही वस्तुतः वैदिक धर्म है। वैदिक धर्म का पालन कर ही मनुष्य दुःखों से दूर होते हैं और शरीर व आत्मा की उन्नति को प्राप्त होकर सामाजिक उन्नति भी करते हैं। अज्ञान व अन्धविश्वासों से सर्वथा रहित वैदिक कर्मकाण्डों को करके ही सभी मनुष्य जीवन के पुरुषार्थ व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्राप्त होकर अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य प्राप्त कर सकते व करते हैं। अतः सभी को वेदों के द्वारा ईश्वर की शरण में आकर परमात्मा से प्राप्त अपने मानव जीवन को सफल करना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य