राजनीति

अपने उद्देश्यों से भटकती पंचायती राज व्यवस्था देश पर भार साबित हो रही

भारत में स्थानीय स्वशासन के प्रणाली प्राचीन काल से ही अस्तित्व में होने का प्रमाण मिलता है।सबसे स्पष्ट प्रमाण चोल काल में मिलता है।अंग्रेजी शासन के दौर में सर्वप्रथम लॉर्ड रिपन ने 1882 में स्थानीय स्वशासन व्यवस्था लागू करने की घोषणा की जिसे स्थानीय स्वशासन का मैग्नाकार्टा भी कहा जाता है। स्वतंत्र भारत में सर्वप्रथम राजस्थान के नागौर में दो अक्टूबर अट्ठारह सौ उनसठ को पंडित जवाहरलाल नेहरु के द्वारा शुरू किया गया।वर्तमान स्वरूप में पंचायती राज व्यवस्था बलवंत राय मेहता कमेटी के अनुशंसा पर 1993 में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के रूप में लागू किया गया।जिन राज्यों की जनसंख्या बीस लाख से कम थी वहां द्वि स्तरीय व्यवस्था लागू किया गया।
पंचायती राज व्यवस्था शासन को आमजन से सीधे जोड़ने के लिए अपनाया गया था।इस व्यवस्था में स्थानीय जनता की स्थानीय शासन कार्यों में प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करने का लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित है।
पंचायत भारतीय समाज की बुनियादी व्यवस्थाओं में से एक रहा है।वर्तमान में हमारे देश में 2.51 लाख पंचायतें हैं ,जिनमें 2.39 लाख ग्राम पंचायतें,6904 ब्लॉक पंचायतें और 589 जिला पंचायतें शामिल हैं। देश में 29 लाख से अधिक पंचायत प्रतिनिधि हैं।
पंचायती राज अधिनियम का उद्देश्य पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था प्रदान करना है, इसमें शामिल हैं–ग्राम स्तरीय पंचायत,प्रखंड स्तरीय पंचायत,
जिला स्तरीय पंचायत।
पंचायती राज व्यवस्था के लागू हुए लगभग 28 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।लेकिन देश और जनता को जो पंचायती राज व्यवस्था से लाभ की उम्मीद थी वह धूमिल नजर आता है।राजनीतिक रूप से केंद्र और ग्राम स्तर पर राजनीति को स्थानीय स्तर पर जोड़ने वाला विकल्प जरूर मिल गया लेकिन जनता की जिस भागीदारी की उम्मीद की गई थी वह कहीं से सफल होते नजर नहीं आ रहा है। पंचायती राज व्यवस्था जमीनी स्तर पर सरकार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के एक और स्तर के निर्माण में तो सफल रही है लेकिन बेहतर प्रशासन प्रदान करने में अभी तक विफल रही है जिसके बहुत सारे कारण है।
जमीनी स्तर पर जब हम पंचायती राज व्यवस्था को देखते हैं तो मालूम चलता है पंचायती राज व्यवस्था के जनप्रतिनिधि अपने 5 वर्ष के कार्यकाल में जनता का कुछ कायाकल्प कर पाए या नहीं अपने आने वाले पांच पीढ़ियों के लिए पूरी ऐसो आराम का इंतजाम करने में सफल दिखते हैं।पंचायती राज के जनप्रतिनिधियों को चुनाव जीतने के बाद तुरंत विधायक और सांसद बनने का भूत सवार हो जाता है। जिसके कारण भी वे हुए भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं ताकि धन संग्रह करके किसी तरह से किसी राजनीतिक पार्टी से टिकट प्राप्त कर अपने कुर्ते की सफेदी को और बढ़ा सकें।पंचायत चुनाव एक ऐसा चुनाव बन गया है जिसमें उम्मीदवारों की संख्या अधिक होने के कारण कुल डाले गए मत के दसवें हिस्से से कम मत प्राप्त करके भी जीत हासिल किया जा सकता है ।यह काम उन नेताओं के लिए आसान हो जाता है जिनके पास धन और जनशक्ति पहले से मौजूद होता है वे उसका उपयोग कर चुनाव जीत जाते हैं। फिर पूरे 5 वर्ष तक अपने लगाए गए धन को ब्याज सहित वसूलने में लगे रहते हैं। पंचायती राज चुनाव के समय आसानी से गांवों में देखा जा सकता है किस तरह से शराब और मुर्गा का जादू काम करता है। जो उम्मीदवार जितना अधिक इनका वितरण करने में सफल होता है वह उतनी ही आसानी से चुनाव जीत जाता है।क्योंकि जनता को भी मालूम है जीतने के बाद ये कुछ करने नहीं जा रहे हैं उल्टे सिर्फ अपना झोली भरेंगे।इसलिए जितना हो सके उनके चुनाव जीतने के पहले उनसे प्राप्त कर लिया जाए।
पंचायती राज व्यवस्था के और सफलता में सिर्फ जनप्रतिनिधि जिम्मेवार नहीं है इसके लिए केंद्र और राज्य की सरकारें भी जिम्मेवार हैं।आज तक पंचायती राज व्यवस्था को जितना संविधानिक और कानूनी अधिकार दिया जाना पंचायती राज अधिनियम में सुनिश्चित किया गया है उसके एक तिहाई अधिकार भी नहीं दिया गया। कार्य अधिकार और जिम्मेवारी का वितरण सही तरीके से नहीं हो पाना, मॉनिटरिंग व्यवस्था अप्रभावी होना, कई अधिकार संकेतिक होना,पंचायत के पास किसी भी प्रकार के राजस्व संग्रह का कोई उपक्रम नहीं होना ,ग्राम सभा की बैठक सिर्फ कागजी होना ,सामाजिक अंकेक्षण दिखावा के सिवा कुछ नहीं होना ,महिला जनप्रतिनिधियों का सिर्फ सरकारी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर तक सीमित होना, सरकारी कर्मचारी और प्रतिनिधियों के बीच छत्तीस का आंकड़ा होना ,शासन व्यवस्था का अनुभव नहीं होना, शिक्षा का अभाव आदि कारण भी पंचायती राज व्यवस्था को असफल बना रहे हैं।कई पद मसलन पंच सरपंच ग्राम सभा सदस्य अब बिना कोई औचित्य के रह गए हैं इनका कोई काम नहीं रहा है बदले परिवेश में शायद ही कोई व्यक्ति इनके पास काम और न्याय के लिए जा पाता है।
आज पंचायती राज व्यवस्था सरकारी काम में अड़ंगा लगाने के लिए अपने असफलता का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़ने के लिए रह गया है।
पंचायती राज व्यवस्था जनभागीदारी तो नहीं बढ़ा पाया पर एक नए तरह के जमींदारी को जन्म जरूर दे दिया है।जो आपको प्रत्येक पंचायत के जनप्रतिनिधि के रसूख देखने के बाद पता चल जाएगा।उनके पास कार्यकाल के पांच वर्ष पूरे होते-होते गांव शहरों में अलीशान बंगले महंगी महंगी चमचमाती गाड़ियां यहां तक कि सरकारी गार्ड भी दिखाई देने लगते हैं।
इस तरह से सारी बातों को लोकल करने के तत्पश्चात एहसास होता है भारतीय मनीषियों ने पंचायती राज व्यवस्था के तहत जिस लोक कल्याणकारी राज की उम्मीद किए थे वह जमीनी स्तर पर बिल्कुल सफल होते दिखाई नहीं पड़ रहा है यह पूरी तरह से अपने उद्देश्य से भटक चुका है।
— गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम

गोपेंद्र कुमार सिन्हा गौतम

शिक्षक और सामाजिक चिंतक देवदत्तपुर पोस्ट एकौनी दाऊदनगर औरंगाबाद बिहार पिन 824113 मो 9507341433