अब क्या देखना बाकी है?
देख लिया, प्रजातंत्र को दम तोड़ते हुए,
ठंड में, किसानों पर, पानी का फव्वारा छोड़ते हुए!
अन्नदाता को, भूख से भूमि पर तड़पते हुए,
कार्पोरेट घरानों को, किसान की भूमि हड़पते हुए!
यह भी देखा कि, सरकार की नीति कैसी है?
वह गरीबों की नहीं, धनकुबेरों की हितैषी है!
वयोवृद्ध धरती पुत्र को, बच्चों सा बिलखते हुए,
जन प्रतिनिधियों को, सत्ता का सुख चखते हुए!
देहाती निष्कपट व्यक्ति को, आतंकी कहना,
सब कुछ जानते हुए भी, किसी का चुप रहना?
किसान अपनी फसल का उचित मूल्य मांग रहा,
वह कौन सा, सरकारी नियमों को लांघ रहा?
देखा कि, अरबपति को खरबपति बना रहे हैं,
भोले भाले ग्रामीणों को, कपट से मना रहे हैं?
परिदृश्य गतिमान है, जिसमें भारी चालाकी है,
सहमा हुआ हूं, अब और क्या देखना बाकी है?
— पद्म मुख पंडा