मानसिक गुलामी
स्वतंत्रता के इतने दशक बीत जाने के बाद भी भारत की तरूणाई आज भी वैचारिक, मानसिक, भौतिक गुलामी को नही छोड़ पा रही है। जिस भारत मे केवल २ प्रतिशत से भी कम ईसाई समुदाय के लोग रहते हों और ७५ प्रतिशत लोग सनातन संस्कृति को जीने वाले लोग जब वैचारिक गुलामी को धारण किये हों तब बहुत शर्म की बात हो जाती है। अवैज्ञानिक रीति से जो उत्सव अंग्रेज मनाते हों वह विश्व गुरु भारत के लिए शोभा नही देते। क्रिसमस, एक जनवरी, ईस्टर, वैलेंटाइन डे, अन्य विभिन्न प्रकार के डे, जैसे उत्सव जब भारतीय समाज बिना किसी संकोच के बिना कुछ जाने समझे दिखवे के लिए मनाता हो तो स्वतंत्रता प्राप्ति में कहीं कमी रह गयी तब ऐसा ध्यान आता है। यहां तक जन्मदिन आदि भी भारतीय परम्परा को छोड़कर पाश्चात्य रीति से लोग केक काट कर मनाते हैं जो नीचतापूर्ण लगता है। “स्वामी विवेकानंद जी अपने उद्बोधनों में कहते थे कि जिस देश को नष्ट करना है तो उसे उसकी सभ्यता, संस्कृति को नष्ट कर दीजिये वह देश मृतप्राय हो जाएगा” आज भारत के साथ कुछ वैसा ही हो रहा है। भारत मे विभिन्न प्रकार के जिहाद के माध्यम से सभ्यता, संस्कृति को नष्ट करने के कुचक्र रचे जा रहे हैं इस बात को सभी को समझना होगा।
विचार कीजिए क्या केवल दीवाली में पटाखे, होली में पानी बचाने और भारत माता की जय की नारे लगाने भर से भारतीय संस्कृति को बचाया जा सकता है।
हिन्दी से हिंदुस्तान है, भारतीय संस्कृति से हीं अपनी पहचान है। जनवरी को अपना कैलेंडर बदले, अपनी भारतीय होने का संस्कृति नही। गुलामी की मानसिकता को निकाल पाना सहज नहीं होता है। जब सौ-दो सौ वर्ष कोई देश, समाज, जाति गुलाम रह लेती है तो यह और भी कठिन हो जाता है।
भारत लगभग १००० साल गुलाम रहा है। गुलामी की मानसिकता निकालने के लिए देश, समाज, जाति को नैतिकता से विभूषित नेतृत्व की ज़रूरत होती है, जिसे नेता कहते हैं। कदाचित् नेता का ही अभाव हो तो सदियों तक भी गुलामी की मानसिकता नहीं निकल पाती है। इसका ज्वलंत उदाहरण भारत है, जहाँ ७३ साल के बाद भी गुलामी की मानसिकता नहीं निकल पाई है। किसी देश को भौतिक, आर्थिक और मानसिक गुलामी से उबारने में पॉलिटिशियन्स और नौकरशाहों यानी कि अड्मिनिस्ट्रेटिव सेट अप की अहम भूमिका होती है। इनका स्वतंत्र देश के अनुरूप होना अनिवार्यता है। अपने अंतर्मन में, अपने इर्दगिर्द झाँके,भली भाँति स्थिति का जायज़ा लें, और अगर गुलामी की मानसिकता है तो उसका उन्मूलन करने का प्रयास करना चाहिए। कोई भी देश सही मायनो में तभी आज़ाद होता, तभी प्रगति कर सकता है जब उसकी संतति केवल भौतिक ही नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक और वैचारिक रूप से भी आज़ाद हो। यह दुर्भाग्य ही है कि आज़ाद भारत को नेता जी सुभाषचंद्र बोस के स्तर का एक भी नेता नहीं मिला, और उसका परिणाम सामने है। अपने देश को छोड़ अमेरिका आदि देशों में जाने- बस जाने की मानसिकता आज़ादी के ७३ साल बाद भी क्यों, सोचिए? पाश्चात्य शैली के प्रति इतना आकर्षण किस लिए? अपनी मातृ/ राष्ट्रीय भाषा के प्रति दुराव/ विरोध किंतु विदेशी अँग्रेज़ी भाषा के प्रति ऐसा नहीं, क्यों? अँग्रेज़ी/ पब्लिक स्कूलों में हिंदी अथवा अपनी मातृ भाषा बोलने पर पिटाई, यह सब क्या है? गैरों के प्रति भी सहिष्णुता रखिए, लेकिन अपनों से दुराव तो नहीं कीजिये।
भारत को विश्व का सिरमौर बनाना है । विश्वगुरु के पद पर भारत को बिठाना है । गौ-गीता-गंगा की महत्ता बता जन-जन को जगाना है। पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण से युवाधन को चेताना है तो आज और अभी से हमको लगना होगा। इसलिए आवश्यकता है मानसिक गुलामी से बाहर निकल श्रेष्ठ भारतवर्ष की सभ्यता, संस्कृति को आगे बढाईये।