निकल पड़ा ईक सांय मैं खरीदने को
कुछ वक्त के बाजार में,
थी जहां चहुंओर रोशनी ही रोशनी
उस वक्त भीड़ भरी राह में,
सजी थी दुकानें कहीं ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में,
तो…
कहीं गली-चौराहों के फुटपाथों में, और…
कहीं हल्की-सी झिलमिलाती रोशनी
बीचों-बीच गलियारों में,
दौड़ाई नजर तो…
दूर दिखा इक फुटपाथ पर पड़ा
ठण्ड से बेहाल इंसान उस भीड़ भरे बाजार में,
मगन सभी जन मगन अपने ही अपने मनोभावों में,
भूल गया लेने को क्या गया था मैं
उस सांझ के वक्त वक्त बाजार में, क्योंकि…
एक तरफ हंसी-खुशी है
तो…
दूसरी तरफ असहाय व दुःखी इंसान पड़ा है राह में,
समझ आया कि…
यही तो है माया का संसार
कोई भरा यहां भण्डार में, तो…
कोई पड़ा है यहां अकाल में,
निकट जाकर देखा अर मिला उस बेबस इंसान को,
सुनी गंभीरता से दुःख दर्द भरी वेदना को,
किया प्रयास अर लिया संकल्प, कि…
मिटे परेशानी अर मिले राहत
उस असहाय अर दुःखी इंसान को,
वक्त के बाजार में मिले सेवाभाव तो यही होगी
सच्ची खरीददारी इस संसार में,
विगत वर्ष की याद में, आगत वर्ष के स्वागत में,
लेते संकल्प यही हम, कि…
कभी न करेंगे नजर-अंदाज अब
किसी जरूरतमंद इंसान को। जरूरतमंद इंसान को।।
— शम्भु प्रसाद भट्ट ‘स्नेहिल’