मेरा मन
कभी लहरों सा चंचल था मेरा मन..
कभी ज्वाला सा भड़कता था मेरा मन..
आख़िर आज क्यों रोता मेरा मन,,
मासूमियत होती लाचार,,
मासूमों पर होता दुराचार,,
नारियों पर भारी अत्याचार,,
दुराचारियों कि तादाद होती अपार,,
इसलिए रोता आज मेरा मन…
भरी महफिल में गुमनाम होता मेरा मन,,
शोर शारावा की दुनियां में चुप रहता मेरा मन,,
कभी होता बलात्कार,,
कभी होता तेजाब से बार,,
आख़िर क्यों होती उनकी आबरू तार तार,,
क्या कभी होगा इन बहसियों पर वज्र प्रहार,,,
आख़िर इस दुख में रोता “मेरा मन”
इन्हीं में व्यथित होता “मेरा मन”
— इंजी. सोनू सीताराम धानुक “सोम”