ग़ज़ल
साल दर साल यूँ गुजरते हैं।
ख़्वाब हर बार कुछ सँवरते हैं।
काश!उल्फत निभा सको तुम भी,
जिस्म क्या जाँ तलक़ निखरते हैं।
ज़िन्दगी में रहे सदाकत ही,
ये दुआ बेपनाह करते हैं।
शूल सा क्यों मिज़ाज रखना है,
फूल बनकर चलो बिखरते हैं।
गर खुशी का ‘अधर’ समां हासिल,
ग़म कहाँ पास तब ठहरते हैं।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’