झूठे लोग
एक बार झूठ बोल कर
उसे छुपाने के लिए
झूठ पर झूठ बोलते जाना,
पकड़े गये जो कभी तो
ज़माने भर की शर्मिंदगी उठाना,
पकड़े जो गये ना तो भी उम्र भर
भांडा फूटने के डर से
मन ही मन डरते जाना,
इस डर के कारण ही
दिन का चैन, रातों की नींद
किश्तों की तरह भरते जाना,
फिर भी कहां छोड़ पाते हैं
हम लोग
खुद झूठ बोलना और दूसरों से
झूठ बुलवाते जाना,
काम निकालने के लिए अपना
झूठी तारीफें करते जाना,
अहम की संतुष्टि के लिए अपनी
झूठी तारीफें सुनते जाना,
बुराई करना पीठ के पीछे
सामने कसीदे पढ़ते जाना,
गाली देना मन ही मन में
मुंह पे गुणगान ही करते जाना,
जल-भुन राख हो जाना मन में
सामने बधाई उड़ेलते जाना,
कहां छोड़ पाते हैं हम
खुद झूठ बोलना और दूसरों से
झूठ बुलवाते जाना।
— जितेन्द्र ‘कबीर’