ऊपर जाकर तुम्हारी दादी को क्या जवाब दूंगा
स्वाति और सुमन दो बहनें थी। दोनों पढ़ने में काफी होशियार थी। लेकिन यकाएक दो माह के भीतर ही माता पिता के गुज़र जाने के कारण उनपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। दोनों के देखभाल और उनकी पढ़ाई लिखाई की दोहरी जिम्मेदारी अब परिवार में एक मात्र बचे सदस्य शिक्षक पद से अवकाश प्राप्त दादाजी पर आ पड़ी। लेकिन दादाजी के पेंशन से घर खर्च और पढ़ाई-लिखाई खर्च चलाना काफी मुश्किल होने लगा।यह देख एक दिन दोनों बहनें दादाजी के पास गई और बोली हम-दोनों ने फैसला किया है कि कल से पढ़ाई लिखाई बंद कर देंगे। इस पर दादाजी नाराज हो गए और बोले तुम लोगों को हमारी बुड्ढी हड्डियों पर भरोसा नहीं है जो ऐसा फैसला कर ली। अगर तुम्हें कोई परेशानी है तो कहो जब-तक मैं जिंदा हूं तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है।सिर्फ अपने पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान केंद्रित करो।अब से ऐसी बात किये तो मैं नाराज़ हो जाऊंगा।भला बढ़ते कदम को भी कोई रोकता है क्या? मैं ऊपर जा कर तुम्हारी दादी और माता पिता को क्या जवाब दूंगा !
मैं कल से ही आस पड़ोस के बच्चों को इकट्ठा कर पढ़ाना शुरू कर देता हूं इससे जो दो चार पैसे मिलेंगे उससे तुम दोनों का पढ़ाई खर्च आसानी से निकल आएगा। हालांकि यह मेरे वसूलों के खिलाफ है कि मैं अपने विद्या का सौदा करूं ! पर बदले हालात में मैं बुड्ढा आदमी कर भी क्या सकता हूं ! सरकार से इतना कम पेंशन मिलता है कि अपने दो मासुम पुत्रियों के पढ़ाई-लिखाई के खर्च भी नहीं चला पा रहा हूं।पुरानी पेंशन व्यवस्था में लोगों को इतना पैसा मिल जाता था, जिसमें आराम से पूरे परिवार का जीवन भरण पोषण हो जाता था । पर ना जाने कौन उस समय के प्रधानमंत्री अटल जी को सलाह दे दिया कि उन्होंने पुरानी पेंशन व्यवस्था को समाप्त कर अवकाश प्राप्त करने वाले कर्मचारियों की कमर तोड़ दी। जो नई पेंशन व्यवस्था लागू किए वह बढ़ती महंगाई के दौर में ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा है। काश कोई सरकार को सद्बुद्धि दे कि जो कर्मचारी अपना पूरा जवानी सरकारी सेवा में व्यतीत कर देता है उसके बुढ़ापे की लाठी पेंशन फिर से बहाल कर दे।
— गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम