एक शिक्षिका की डायरी का एक पन्ना
28 अक्टूबर, 2019
सुबह सुबह राशिद विद्यालय में शोर मचा रहा था। आज हमारी कक्षा में भुट्टे बांटे जाएंगे। वह क्यों न खुश होता, एक हफ्ते के इंतजार के बाद आज कक्षा 4 के बच्चों को भुट्टे मिलने का क्रम जो आया था। मारिया चुपचाप सब देखती रही। उसका नया नामांकन हुआ था। बड़ी मासूमियत से पूछती है, क्या इस स्कूल में भुट्टे भी उगते हैं? दिलकश शान से बताने लगता है, उगते नहीं हम उगाते हैं।“ सब एक-दूसरे से अपने विद्यालय में उगी सब्जियों जैसे मूली, टमाटर, आलू-बैंगन, भुट्टों के विषय में बताकर खुश हो रहे थे। कोई कहता हम बीज लाये थे। कोई बोल रहा था कि हम रोज पानी, खाद, गुड़ाई करते थे। कैफ उछलता हुआ कहता, ”बकरियों से अगर मैं न बचाता? तो क्या आज भुट्टे और आलू मिल पाते? तभी सामने से सबकी चहेती माया दीदी (रसोइया) भुने हुए भुट्टे नमक लगाकर सभी को बांटती है। सभी बच्चे बड़े चाव से खुश होकर भुट्टे खा रहे थे। मेरी आंखों के सामने अतीत के चित्र एक-एक कर गुजरने लगे। विद्यालय का वो पहला दिन जब प्रमोशन के बाद यहां पहला कदम रखा था। सब कुछ अस्त-व्यस्त था। आज भी आंखों के सामने वहीं मंजर, वीरान जंगल-सा विद्यालय परिसर घूम जाता है। सोचती थी इस बेजान सी धरती को सजीव कैसे बनाऊं? सभी बच्चों और रसोइयों को बुलाकर अपने इरादे के बारे में बताया तो रसोइयों ने कहा, ”काम तो अच्छा है पर आसान नहीं। सालों से यहां एक पौधा भी नहीं उगा। जमीन ही बंजर है।“ मैं बस इतना ही बोली, ’कोशिश करने में क्या हर्ज है, धरती को सजीव बनाना सीखना चाहिए।’
पूरे परिसर में मोहल्ले का कूड़ा वर्षों से डाले जाने के कारण वह जमकर सख्त हो गया था। कूड़ा हटाने के लिऐ मैंने विभाग को कई बार अर्जी लिखी। फिर कुछ अभिभावकों को श्रमदान के लिए राजी किया। गांव में कुछ लोग सहयोग हेतु आगे बढ़े। एक हफ्ता परिसर की जुताई का कार्य चला। हमने और बच्चों ने खून पसीना एक करके सारी गंदगी साफ किया। बस यही बोलती रही, ”ये परिसर हमारा है, इसे साफ सुथरा हरा-भरा बनाना हमारा फर्ज है।“ कुछ दुष्ट लोग अभी भी विद्यालय में कूड़ा डालते, ईंटा, पत्थर चलाते, जिससे हम सभी परेशान थे। तब हमने नन्हे बच्चों की एक ’ग्रीन आर्मी’ तैयार की जो आसपास के लोगों को ऐसा न करने और साफ-सफाई के लिये जागरूक करती। कुछ असामाजिक लोगों को हमारा काम अखर रहा था और वे हमें विद्यालय छोड़ने की धमकियां भी दे रहे थे। पुलिस प्रशासन की मदद से उन पर भी रोक लगाई गई। इन बदलावों को देख लोग जुड़ने लगे। मैं बस यही समझाती कि विद्यालय हमारे बच्चों का भविष्य है। इसमें आप साथ देंगे तो हम बेहतर कर पायेंगे। मैं स्कूल को संवारने में जी जान से जुट गई। बच्चे किसी को कुछ करते हुए देखने के बाद अपने हाथों से करके सीखते हैं। तो रोज सुबह मैं बच्चों से कहती, ”चलो बच्चो काम शुरू करें।“ बच्चे खुरपी, फावड़े और कुदालें ले आते। अभिभावक शमीम चाचा किसान थे, वो जब भी विद्यालय में आते उन्हें देखकर बच्चे खुश हो जाते, क्योंकि वे बच्चों को खेती बाड़ी के तौर-तरीके बता जाते। बच्चों में उत्साह जाग जाता। उनकी देखा-देखी खाद छिड़कते, कतारें बनाते, निराई-गुड़ाई करते। बच्चे पसीने से तरबतर हो जाते, पर रुकते नहीं।
मैदान के पीछे का हिस्सा जहां गांव के लोग कई वर्षों से कूड़ा डाला करते थे। डंप होकर पहाड़ नुमा प्रतीत होता था। मैंने सोचा ये भी साफ कर लूं तो इतनी जमीन और निकल आएगी। और बच्चों के लिये सब्जियां उगाई जा सकेंगी। पर उसे साफ करना काफी कठिन काम था। नगर पालिका में अर्जी पर अर्जी लगाती रही। एक दिन सफाई कर्मी आये और कूड़ा देखकर घबरा गये, बोले मैडम ये तो पंद्रह दिन से कम में नहीं हो पायेगा। काम शुरू करवाया। बच्चे और अभिभावक भी साथ लग गये। धीरे-धीरे जमीन साफ होती रही और उससे निकलने वाले तमाम ईंटों से हम क्यारियां बनाने में लग गए। कूड़े वाली जमीन के साफ होते ही आमिर अपने पापा को बुला लाया जो मिट्टी डालने का काम करते थे। उनके सहयोग से बच्चों ने क्यारियों में उपजाऊ मिट्टी डाली। अगली सुबह बच्चे दौड़ते हुए मेरे पास आए और अपने-अपने बैग से बीज वाले आलू निकाले और बोले कि घर वालों ने बोने के लिए दिये हैं। चांदनी ने सबके बैग से उन आलुओं के बीजों को टोकरी में जमा किया। क्यारियां तो पहले से ही तैयार थीं। बच्चों ने कतारों में बीज बो दिए। क्यारियों में समय समय पर खाद पानी डालते रहे। एक दिन तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं था। जब गांव के कुछ सहयोगी लोग अमरुद, टमाटर, नींबू, गुलाब, बेला और एलोवेरा के पौधे लेकर स्कूल पहुंचे। उनको भी उचित जगह पर रोपा गया। जल्दी ही पौधे बड़े होने लगे। बच्चे अपने नन्हें हाथों से बोये बीजों को पहली बार धरती की कोख से बाहर झांकते, पनपते देख रहे थे। यह आनंद अनूठा था। फसल बढ़तीं रही और बच्चों के सपने भी।
आलुओं की फसल जब पक गई तो खुदाई का दिन तय हुआ। बच्चों ने अपनी अपनी क्यारियां बांट लींे। खुरपी से वो उसे खोदते जाते और मुझे दिखा-दिखाकर खुश होते। मजाल जो इस कार्य में कोई कोताही हो जाय। कोई आलुओं को बीन रहा था, कोई धोकर टोकरी में रखता जाता। अरशद, माया दीदी से आलुओं के पराठे बनाने की फरमाइश करता, तो नेहा चिप्स की जिद करती। कितने मासूम लग रहे थे ये सब। और सैफ तो शरारतों में सबसे ही आगे रहता। आलुओं से भरी टोकरी सिर पर रखता और ‘आलू ले लो आलू’ आवाजें लगाता तो सारे बच्चे खिलखिलाकर हंस पड़ते। तभी सलोनी दौड़ती हुई मेरे पास आयी और बोली मैम आज की सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनी है। पीछे से अयान बोल उठा ’अरे जानती नहीं हो यह सब्जी विद्यालय में उगे आलू-टमाटर से बनी है।’ तभी लंच की घण्टी बजी और मैं यादों से बाहर निकली। बच्चे चेहरों पर खुशी ओढ़े लंच रूम की ओर बढ़ रहे थे।
— आसिया फारूकी