स्वतंत्रता
नभ धरातल रसातल में ढूंढ़ता।
कहां हो मेरी प्रिये स्वतंत्रता।।
सृष्टि से पहले भी सृष्टि रही होगी,
तभी तो ये बात सारी कहीं होगी,
क्रम के आगे नया क्रम फिर आता है,
दास्तां की डोर बांध जाता है।।
सालती अन्तस अनिर्वचनीयता।।
कहां हो0
मौन की बातें कहां जाती लिखी,
ठोस द्रव हवा में भी तूं ना दिखी,
तुझको पाने में विफल सब तंत्र है,
ये समूची सृष्टि ही परतंत्र है ।।
अब तक प्रसरित हो रही है अनृतता।।
कहां हो0
भ्रूण में आया तो मुक्ति ठान ली,
बाहर ले चल सारी बातें मान ली,
यहां पर आकर भी न कुछ कर सका,
अपने मन से जी सका न मर सका।।
वेध जाती है मेरी परकीयता।।
कहां हो0
त्रय प्रकृति पुरुषार्थ अभिलाषा बड़ी,
सड़ गया तन वासना पर न सड़ी,
उषा सांध्य दिवस रैन यही क्रम चलेगा
कली पुष्प बीज पेड़ पुनः पुष्प खिलेगा
शेष कब जागेगी ये आत्मीयता।।
कहां हो0