भाषा-साहित्य

मातृभाषा से मुंह मत मोड़िए  

मातृभाषा मिश्री सी मीठी होती है। महाभारत की तरह मधुर, रामायण की तरह रसीली, गीता की तरह गुनगनाने योग्य होती है। मातृभाषा में बोलना – सोचना – लिखना – पढ़ना सब कुछ सरल लगता है। मातृभाषा के बारे में महात्मा गांधी जी ने कहा है, “ जैसे बच्चों के विकास के लिए मां का दूध आवश्यक है, उसी तरह बच्चे के पूर्ण विकास के लिए प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में होनी ज़रूरी है। “ वाशिंग्टन विश्व विद्दालय के शोधकर्ताओं द्वारा किये गए अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि बच्चे का दिमाग़ शब्द बोलने से पहले ही इस बात पर काम करना शुरू कर देता है कि शब्द किस तरह बाहर निकलते हैं। इस प्रक्रिया में जो विशिष्ट चीज विकसित होती है वह है मातृभाषा से लगाव। 11 माह का बच्चा भी अपनी मातृभाषा की ओर आकर्षित होता है, यह एक सुंदर सच्चाई है। इस शोध से यह निष्कर्ष सामने आया कि बच्चों के दिमाग़ को ज़्यादा ज़ोर लगाना पड़ा उस भाषा को समझने के लिए, जो कि उसकी मातृभाषा नहीं थी।
जहां तक मेरी बात है अपनी मातृभाषा देवनागरी सिंधी के प्रति मेरे मन में अपार आदर, मान – सम्मान है। उसके अलावा हिंदी के प्रति गहरा लगाव – जुड़ाव स्कूल के ज़माने से रहा है। थोड़ी बहुत उर्दू भी आती है। मेरा बचपन कर्नाटक में बीता, इसलिए कन्नड़ बोल – लिख – पढ़ सकता हूं। मराठी माध्यम से पढ़ाई पूरी करने के कारण फर्राटेदार मराठी आती है। जहाँ तक अंग्रेजी की बात है, मुझे काम चलाऊ ही आती है। कहने का तात्पर्य यह है कि मातृभाषा का गुणगान गाते हुए अन्य भाषाओं को कमतर नहीं आंकना चाहिए। हर भाषा का अपना महत्व है। हर भाषा में विविधता, विशिष्टता है, भले वो देसी हो या विदेशी। भारत देश की बात करें तो सभी को सबसे पहले मातृभाषा , फिर राज्यभाषा और राष्ट्रभाषा अनिवार्य रूप से सीखनी चाहिए। अंग्रेजी आदि भाषाओं का नंबर इन तीन भाषाओं के बाद ही आना चाहिए।
अपनी मातृभाषा से सभी को प्यार होना चाहिए। यह ज़ुबान सभी को अपनी मां की तरह प्यारी लगनी चाहिए। मातृभाषा जिसे क्षेत्रीय भाषा भी कहा जाता है, उसमें धाराप्रवाह होना कई चीजों में लाभ पहुंचाता है। यह उसे अपनी संस्कृति से जोड़ने, ज्ञानबोध बढ़ाने और अन्य भाषाओं को सीखने में सहायक होता है। मातृभाषा में सीखी गई कुशलता उन दूसरी भाषाओं में ट्रांसफर हो जाती हैं जो हमने स्कूल में सीखी हैं , क्योंकि सभी भाषाएँ एक दूसरे की सहायक होती हैं। मान लीजिए आप कभी मुसीबत में हों या फिर कोई चोट लगे तो आपके मुंह से अनायास मातृभाषा के ही शब्द निकलते हैं। मातृभाषा के बारे में मराठी टी वी कलाकार स्नेहा वाघ ने कहा है , “ महाराष्ट्रीयन होने के नाते मेरी मातृभाषा मराठी है। मैं अपनी मातृभाषा से प्रेम करती हूं, इसलिए इसे बोलने का कोई अवसर नहीं चूकती हूं। यदि आप शुद्ध मराठी में बात करते हैं तो यह काफी सभ्य लगती है। मेरी माँ ने नियम बनाया है कि हम घर पर मराठी में ही बातें करें। शुरुआत में मुझे और मेरी बहन को यह थोड़ा कठिन लगा, क्योंकि हम अंग्रेजी से पढ़े – लिखे हैं। लेकिन हमने मां के आग्रह को इसलिए भी माना कि अगर हम अपनी मातृभाषा में नहीं बोलेंगे तो एक दिन वह भी संस्कृत की तरह लुप्त हो जाएगी। “ उनके विचार तर्कसंगत, न्यायसंगत हैं। भले आप फ्रेंच, डच, जापानी जो जी में आए वो भाषा सीखें, लेकिन अपनी मातृभाषा से मुंह मोड़कर नहीं। मातृभाषा का मुकाबला कोई अन्य भाषा नहीं कर सकती है।
– – अशोक वाधवाणी

अशोक वाधवाणी

पेशे से कारोबारी। शौकिया लेखन। लेखन की शुरूआत दैनिक ' नवभारत ‘ , मुंबई ( २००७ ) से। एक आलेख और कई लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ नवभारत टाइम्स ‘, मुंबई में दो व्यंग्य प्रकाशित। त्रैमासिक पत्रिका ‘ कथाबिंब ‘, मुंबई में दो लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ आज का आनंद ‘ , पुणे ( महाराष्ट्र ) और ‘ गर्दभराग ‘ ( उज्जैन, म. प्र. ) में कई व्यंग, तुकबंदी, पैरोड़ी प्रकाशित। दैनिक ‘ नवज्योति ‘ ( जयपुर, राजस्थान ) में दो लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ भास्कर ‘ के ‘ अहा! ज़िंदगी ‘ परिशिष्ट में संस्मरण और ‘ मधुरिमा ‘ में एक लघुकथा प्रकाशित। मासिक ‘ शुभ तारिका ‘, अम्बाला छावनी ( हरियाणा ) में व्यंग कहानी प्रकाशित। कोल्हापुर, महाराष्ट्र से प्रकाशित ‘ लोकमत समाचार ‘ में २००९ से २०१४ तक विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन। मासिक ‘ सत्य की मशाल ‘, ( भोपाल, म. प्र. ) में चार लघुकथाएं प्रकाशित। जोधपुर, जयपुर, रायपुर, जबलपुर, नागपुर, दिल्ली शहरों से सिंधी समुदाय द्वारा प्रकाशित हिंदी पत्र – पत्रिकाओं में सतत लेखन। पता- ओम इमिटेशन ज्युलरी, सुरभि बार के सामने, निकट सिटी बस स्टैंड, पो : गांधी नगर – ४१६११९, जि : कोल्हापुर, महाराष्ट्र, मो : ९४२१२१६२८८, ईमेल [email protected]