क्या-क्या छुपाने लगे हो तुम
कितना मुश्किल है तन्हा जीना, बताने लगे हो तुम
जिस तरह से हर घड़ी अब याद आने लगे हो तुम
तुम्हें कहाँ याद आती होंगी अब मिट्टी की खुशबू
मेरे बेटे, क्या करें शहर में जो कमाने लगे हो तुम
कैसे जी पाओगे इत्मीनान से , दो – चार दिन भी
क्यों ज़माने भर का बोझ खुद उठाने लगे हो तुम
तारीखों- तहज़ीब जो भी बाकी है इस मुल्क में
मजहबी रंजिशों में क्यों उसे मिटाने लगे हो तुम
अभी तलक दो कदम भी नहीं चले हो साथ मेरे
और हर कदम पर अहसान गिनाने लगे हो तुम
इतनी ख़ुशी,इतनी हँसी,और इतनी अठखेलियाँ
सच-सच बताओ, क्या-क्या छुपाने लगे हो तुम
— सलिल सरोज