माटी
नित नए रंगों में ढलता हूं
मैं फिर भी नहीं बदलता हूं
दीपक बन जलता हूं कभी
कभी कलश हो पानी धरुं
कभी चाय की कुल्हड़ बन
थके पथिक को धानी करूं
कभी हाथी घोड़ा बैल बनूं
और बच्चों के मन भाऊं मैं
गुल्लक बन आज के तप से
कल के सुधन बचाऊं मैं
चुल्हा बन कभी जलता हूं
मैं फिर भी नहीं बदलता हूं
फूलों का गमला बन जाता
मूरत बन जाता ईश्वर की
घर की कभी दिवार देहरी
छत बन जाता खप्पर की
कभी लेप बन तन चमकाता
कभी धूल बन गंदलाऊं
कभी चिलम की कुप्पी बन
धुंआ धुंआ सब कर जाऊं
सुखता, पकता, गलता हूं
मैं फिर भी नहीं बदलता हूं
चाहे कितने गढूं कलेवर
मैं जग की परिपाटी में
किन्तु अपना सत्य न भूलूं
हुं माटी ; मिलता माटी में
अन्न उगाकर गर्भ से अपने
जब भूख मिटाया करता हूं
सच कहता हूं केवल उस दम
खुद पर इतराया करता हूं
खेती में फुलता फलता हूं
मैं सच में नहीं बदलता हूं
— समर नाथ मिश्र