खूं की जद में अब आसमाँ आया है
समन्दर में जब तूफ़ान आया है
कश्तियों का इम्तहान आया है
उजड़ गए जब सारे बाग़ – बगीचे
टहलता हुआ तब बागबाँ आया है
पंख क़तर के अमन कायम कर दी
फिर बहेलिए को इत्मीनान आया है
सारे बस्ती जलती रही तो कुछ नहीं
अपना मकाँ जला तो जुबां आया है
जब हिम्मत छोड़ दी गई जीतने की
तब निकल के तीर-कमान आया है
ये ज़मीन तो पहले से ही उदास थी
खूं की जद में अब आसमाँ आया है
— सलिल सरोज