छूट गया
जैसे जैसे कदम बढ़ते जाते है ,
छूट जाता है कुछ अपना ,
जो बसा होता है जहन में,
उस मिट्टी की खुशबू है ,
सांसों में बसी धड़कन सी,
नाम सुनते ही दिल तो,
बेकाबू से हो जाता है मेरा,
रोम रोम में बसी है ,
यादें ,महक वहां की ,
जिसको कैसे बिसरा दूँ,
वहीं की परवरिश है मुझमें,
संस्कृति जो है मुझमें बसी,
कैसे भूल जाऊँ मैं ,
हो जाऊं स्वार्थी सी
मेरा शहर याद आता है ,
मां के संस्कार है दिल मे ,
दूर हुँ परदेस में उससे,
वो ही तकलीफ देते है मुझे ।।
डॉ सारिका औदिच्य