गीतिका
देर तक याद मुझे आती रही ।
बारहा दिल मेरा दुखाती रही ।
लोग कहते रहे, गजल है हुई,
कलम थी अश्क को सजाती रही।
रात भर इज्जतदार आते रहे,
मैं अपनी आबरु लुटाती रही।
पत्थरों के हैं हुक्मरान यहाँ,
हरेक ख्वाहिश टूट जाती रही।
साल दर साल उम्र बढ़ती रही,
साँस की गिनतियाँ घटाती रही।
मौत है सबकी आखिरी मंजिल,
ये बात जिंदगी भुलाती रही ।
—————–डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी