सिर्फ तेरे लिए लिखता हूँ मैं
अच्छा लिखता हूँ या खराब लिखता हूँ मैं
एक तेरे हुस्न को शराब लिखता हूँ मैं।
लिखने का होश भी अब तो रहा नहीं
सिर्फ तेरे लिए मेरे जनाब लिखता हूँ मैं।
खुद को छिपा के रखी तू सदा नक़ाबों
ग़ज़लों में तुझको बेनकाब लिखता हूँ मैं।
चाँद का टुकड़ा,मल्लिका-ए-हुस्न भी
ना जाने देकर कितने ख़िताब लिखता हूँ मैं।
खुद को छोटी कलम समझता हूँ सदा
सिर्फ तेरे लिए बनके नवाब लिखता हूँ मैं।
कतई ज़हर तो कभी अमृत लगती है तू
शोला,शबनम कभी आफ़ताब लिखता हूँ मैं।
अनसुलझा सा सवाल रही तू मेरे खातिर
तेरे हर सवालों का जवाब लिखता हूँ मैं।
रिश्ते का तुमने मज़ाक बनाया था कभी
उन्हीं मजाकों पे पूरी किताब लिखता हूँ मैं।
— आशीष तिवारी निर्मल