व्यथा
मन में उत्साह उमड़ आया
सारा जग जैसे मुस्काया
जब गर्भ में मेरे आये प्राण
आनंद का आँचल लहराया ।
गर्वित होकर हर्षाई सी
माँ बनकर फूली ना समाई सी
जब सहसा मेरा ध्यान गया
मन अनहोनी सी भाँप गया।
क्या हुआ अगर ये नन्ही जान
जो देगी माँ का पद महान
अगर कहीं लड़की होगी
तो भी क्या स्थिति यही होगी?
पुत्रवती हो ये आशीष दिया
कभी पुत्री का नहीं नाम लिया
मन सोच के भी घबराता है
क्या होगा जान ना पाता है ।
प्रिये जो तुम लड़की होगी
सबकी भृकुटी तनी होगी
खुशियाँ ना कोई मनाएगा
सब मेरा दोष बताएगा ।
ना होंगे सोहर के मधुर गान
ना कोई मुझे बधाई देगा
तुमको भी तो मेरी प्रिय पुत्री
ना स्नेहिल दृष्टि से देखेगा ।
मैं स्वार्थ हेतु ना कहती हूँ
पुत्री इस जग में रहती हूँ
पग -पग पर होंगे कठिन त्याग
नारी जीवन की ना करो आस ।
तुम शांत हो सब सह जाओगी
आत्मनिर्भर भी बन जाओगी
पर अपने हिस्से का सब कुछ
तुम अपनों पर ही लुटाओगी ।
निष्कर्ष फिर भी अपयश होगा
कोई भी ना तुमसे तृप्त होगा
अकेले अश्रु बहाओगी
प्रिये कब तक सह पाओगी?
ये ना सोचना मैं स्वार्थी माँ
बेटी को हेय समझती हूँ
तुम तो हो मेरी जान प्रिये
तुमको अनमोल समझती हूँ ।
तुम मुझे पुत्र से प्यारी हो
मेरे भविष्य की साखी तुम
मेरे सुख दुख की साथी तुम
सच्ची उत्तराधिकारी हो ।
मेरी आँखों से देखो तो
तुम कितनी न्यारी लगती हो
मैं सब कुछ कर दूँ न्योछावर
प्राणों से प्यारी लगती हो ।
पर मन दुर्बल हो जाता है
आगे कुछ भी ना सुझाता है
इसलिए पुत्री मैं डरती हूँ
बस इतनी व्यथा ही कहती हूँ ।
गर हो पाये तो ये मनोरथ
माँ की पूरी कर जाना
गर्भ से जब जन्म हो
प्रिये तुम पुत्र बनकर आना।