धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेद सत्य पर आधारित जीवन शैली जीने की प्रेरणा करते हैं

ओ३म्

संसार में किसी भी बात के दो पक्ष हो सकते हैं एक सत्य और दूसरा असत्य। अपने जीवन में हमें कई बार इन दोनों में से एक का चुनाव करना पड़ता है। कई बार असत्य कार्य करने पर हमें लाभ और सत्य को अपनाने पर हानि होती है। ऐसी स्थिति में अधिकांश लोग असत्य का सहारा ले लेते हैं जिन्हें बाद में सरकारी व्यवस्थाओं से भी दुःख प्राप्त होता है। ईश्वर मनुष्य को उसके सभी कर्मों का दण्ड देते हैं। सरकारी व्यवस्था से जो दण्ड छूट जाता है वह हमें ईश्वर से अवश्य ही प्राप्त होता है। अतः सत्य के विपरीत कोई भी असत्य व अप्रशस्त कार्य नहीं करना चाहिये। सत्य को अपनाने से हमें वर्तमान में कुछ कठिनाईयां व समस्यायें तो आ सकती है परन्तु हमारा भविष्य चिन्ताओं व किसी प्रकार के दण्ड से सर्वथा मुक्त होता है। वेद हमारा मार्ग दर्शन करते हैं। वेद परमात्मा का ज्ञान है। वेद मनुष्य को सत्य को ही अपनाने व ग्रहण करने सहित असत्य का त्याग करने की भी प्रेरणा करते हैं। ऐसा करके हमारा जीवन सुरक्षित रहता है। हमें अनावश्यक कष्ट नहीं उठाने पड़ते। ऐसा करके मनुष्य अपने पुरुषार्थ तथा अध्ययन के आधार पर सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर लेता है और अपना जीवन सुख व शान्ति से व्यतीत करता है। यह सभी जानते हैं कि यश व कीर्ति सत्य कार्यों को करने तथा जीवन में तप व त्याग के कार्य करने पर ही मिलती है। आज जिन विद्वानों व महापुरुषों का यश है, वह सभी सत्य के आचरण वा पालन करने के लिए ही अपने जीवन में कार्यों को करते रहे। हमें भी वेदों में विद्यमान ईश्वर की आज्ञाओं का सत्यनिष्ठा से पालन करना चाहिये। ऐसा करते हुए विपरीत परिस्थितियों में भी हमें ईश्वर से सहायता व मार्गदर्शन प्राप्त होता है। वेद ने मनुष्य को कहा है कि वह लोभ न करे। लोभ ही अनेक पापों व बुरे कार्यों का कारण बनता है। यदि हम लोभ पर नियंत्रण कर लें, तो हम अनेक प्रकार के पाप करने से बच सकते हैं।

जब हम सत्य की चर्चा करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि संसार में ईश्वर, जीवात्मा तथा जड़ प्रकृति का अस्तित्व अनादि नित्य है। इन्हें जानकर ही हम सत्य को प्राप्त हो सकते हैं। हमें ईश्वर सहित जीवात्मा तथा सृष्टि के सत्यस्वरूप को समझना चाहिये। इसके लिये हमें वेद वेद के ऋषियों के ग्रन्थ उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, नीति ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि तथा आर्याभिविनय आदि का अध्ययन भी करना चाहिये। इनके अध्ययन तथा विद्वानों की संगति से मनुष्य की सभी आशंकायें व भ्रम दूर हो जाते हैं और वह सत्य से अधिकांश रूप में परिचित हो जाता है। सत्य से परिचित होने पर ही हम सत्यासत्य को जानकर सत्य का आचरण कर व करा सकते हैं। बिना वेदों व वेदों के सहायक ग्रन्थों यथा सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन किये बिना हम सत्य व असत्य से परिचित नहीं हो सकते। अतः हमें सत्य ज्ञान को प्राप्त होना चाहिये। वेद हमें कर्म करने की भी प्रेरणा करते हैं। इसका अर्थ है कि हमें आलसी व प्रमादी नहीं होना है अपितु पुरुषार्थ वा तप से युक्त जीवन व्यतीत करना है। पुरुषार्थ व तप से युक्त जीवन जीने वाले मनुष्य अधिकांशतः स्वस्थ व दीर्घायु को प्राप्त होते हैं। अतः सत्य से युक्त पुरुषार्थमय जीवन मनुष्य को इष्ट सुखों व लक्ष्यों को प्राप्त कराने का सबसे प्रमुख आधार है।

वेदों में मनुष्य के सत्यकर्तव्यों पर भी प्रकाश डाला गया है उन्हें करने की प्रेरणा की गई है। मनुष्य के दैनिक कर्मों में ईश्वरोपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ सम्मिलित हैं। ईश्वरोपासना में ईश्वर के सत्यस्वरूप वा गुण, कर्म, स्वभाव को जानकर मनुष्य ईश्वर के सभी जीवों पर उपकारों से परिचित होता है। इसके लिये उसे ईश्वर की उपासना करनी होती है। उपासना से भी ईश्वर से सत्यकर्मों को करने की प्रेरणा, दुःख सहन करने की शक्ति, देशभक्ति, स्वाध्याय करने व इसके लाभों का परिचय प्राप्त होता है। सन्ध्या व ईश्वरोपासना को करके मनुष्य ईश्वर से एकाकार होकर उसका साक्षात्कार कर सकते हैं। इसके लिये उन्हें योगदर्शन का आश्रय लेकर व उसका अध्ययन कर उपासना करने से लाभ होता है। महर्षि दयानन्द व प्रायः सभी आर्य विद्वान ऐसा ही करके ईश्वर के सत्यस्वरूप से परिचित होकर ईश्वर के आशीर्वादों से भी लाभान्वित हुए हैं। सभी मनुष्यों को ईश्वर की उपासना स्वाध्याय सहित संकल्पित होकर परिश्रमपूर्वक करनी चाहिये।

सभी मनुष्यों को प्राण वायु की शुद्धि उसे सुगन्धित करने, वायु की दुर्गन्ध का नाश करने, वर्षा जल की शुद्धि, शुद्ध पौष्टिक अन्न की प्राप्ति, शारीरिक मानसिक रोगों कष्टों को दूर करने सहित ईश्वर से इष्ट सिद्धि के लिए देवयज्ञ अग्निहोत्र का भी आश्रय लेना चाहिये। इसकी विधि के लिये पुस्तकों का आश्रय लेना होता है। यह पुस्तकें आर्यसमाज मन्दिर पुस्तक विक्रेताओं से प्राप्त हो जाती हैं। यज्ञ करने की विधि सरल है और कोई भी हिन्दी पाठी व्यक्ति आसानी से यज्ञ को कर सकता है। यज्ञ ऐसा कार्य है जिसका लाभ हमें इस जन्म सहित परजन्म में भी होता है। हमें मनुष्य जीवन व उत्तम परिवेश पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर परमात्मा से मिलता है। इस जन्म में हम ईश्वरोपासना तथा यज्ञ आदि जो श्रेष्ठ कर्मों को करते हैं उसके आधार पर ही हमारा परजन्म वा पुनर्जन्म निर्धारित व क्रियान्वित होगा। अतः हमें अपने परजन्म को उत्तम बनाने वा सुखों से युक्त करने के लिये भी प्रतिदिन देवयज्ञ अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये।

हमारे जीवन में हमारे माता-पिता परिवार के वृद्ध लोगों वा सम्बन्धियों का विशेष योगदान होता है। हमें उनके उन ऋणों से उऋण होने के लिये उनके प्रति सेवा सत्कार सद्व्यवहार करना होता है। मुख्यतः माता-पिता दादा-दादी परिवार के सभी वृद्धजनों को भोजन, वस्त्र, आवास, ओषधि सद्व्यवहार से सन्तुष्ट रखना होता है। हम भी कल वृद्ध होगें। हमारा शरीर भी जीर्ण रोगी हो सकता है। ऐसी स्थिति में हमारी सन्तानों का ही कर्तव्य होगा कि वह हमारी देखभाल करें। यदि हम इस बात को उचित मानते हैं तो हमें भी अपने वृद्ध माता-पिता आदि पारिवारिक जनों की पूरी श्रद्धा व निष्ठा से सेवा अवश्य ही करनी चाहिये। इससे माता-पिता तो हमें आशीर्वाद देंगे ही, परमात्मा का आशीर्वाद, सत्कर्मों में प्रेरणा तथा सुखों की प्राप्ति होगी। गृहस्थ जीवन जीने वाले मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह समाज के विद्वान पक्षपातरहित देशहितकारी मनुष्यों के यदा कदा घर आने पर उनका सेवा व श्रद्धा भावना से आतिथ्य करें। उन्हें जल देकर भोजन करायें। उन्हें उचित दक्षिणा दें और उनकी योजनाओं को जानकर उनकी सहायता करें। इसी प्रकार से परमात्मा के बनाये पशु व पक्षियों को भी हमें अपने परिवार का अंग समझना चाहिये। उनके जीवन को सुगम व निष्कटंक बनाना चाहिये। हमें उन्हें चारा व दाना आदि देकर भी उनके प्रति सहयोग की भावना को प्रदर्शित करना चाहिये। भविष्य में हम भी इन योनियों में जा सकते हैं। पूर्वजन्मों में भी हम पशु व पक्षि आदि अनेक योनियों में रहे ही हैं। अतः अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये भी हमें इस परम्परा का आदर्श रूप में पालन करना चाहिये। इस प्रकार से वेद विहित इन पांच महायज्ञ वा कर्तव्यों को करते हुए हमें सभी वेदाज्ञाओं को जानकर उनका पालन करना चाहिये।

मनुष्य को सत्य को स्वीकार करने से यह लाभ होता है कि वह अज्ञान अन्धविश्वासों सहित मिथ्या हानिकारक सामाजिक परम्पराओं से भी बचता है। अज्ञान, अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों के सेवन से पतन हानि होती है तथा सत्य ज्ञान पर आधारित कार्यों परम्पराओं को मानने पालन करने से लाभ होता है। हमें महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पंत्र लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी, लाला लाजपत राय आदि देश भक्त वैदिक विद्वानों के जीवन चरित्र पढ़कर अपने सत्य से युक्त जीवन के मार्ग को चयन करना चाहिये। ऐसा करके ही हमारा जीवन सफल होगा तथा हम यश व कीर्ति को अर्जित कर अपना परजन्म सुधार सकेंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य