प्रकृति से मत कर द्वंद
हे मनुज!ज्ञान चक्षु खोल,
प्रकृति से मत कर द्वंद।
अगर वह कुपित हुआ तो
निर्जन होगा जग-संसार।
सूखेगी जीवनदायिनी नदियां,
आफत बन गिरेंगे पहाड़।
एक ओर अकाल और सूखा
दूजा भयंकर बाढ़-तूफान।
पहले ही तेरे लोभ लालच ने
कितने अरण्य दिए उजाड़।
क्यों दिन-रात खोद रहे हो तुम
रत्नगर्भा पहाड़ों के आधार।
जल,जंगल,जमीन तीनों मांगते
अविलंब अपना उपचार।
मूलनिवासी देश के आदिवासी
प्रकृति के असली पोषणहार।
प्रकृति प्रेमी आदिवासियों को
हमारी लालच ने दी उजाड़।
अब कौन तरु के जड़ सींचेगा
कौन बचाएगा नदी-पहाड़।
गौर कर!कैसे बर्बाद हो रहे
प्रकृति के अनुपम उपहार।
इशारा समझ प्रकृति का
सुधार अपना व्यवहार।
अगर वह कुपित हुआ तो
निर्जन होगा जग संसार।
हे मनुज!ज्ञान चक्षु खोल,
प्रकृति से मत कर द्वंद।
— गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम