ग़ज़ल
तुम छोड़ दो अब मौत का सामान बनाना।
इस बाग़ को मत भूल के वीरान बनाना।
आसान है बहला के तो शैतान बनाना।
दुश्वार है इंसान को इंसान बनाना।
जी लेता है इंसान यहाँ कैसे भी करके,
मुश्किल तो बहुत खुद की है पहचान बनाना।
कुछ काम करो नेक वहाँ बैठ के भाई,
मजलिस को नहीं खेल का मैदान बनाना।
बस खिलते रहे प्यार मुहब्बत के यहाँ गुल,
ऐसा ही जहां को है गुलिस्तान बनाना।
— श्लेष चन्द्राकर