ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से वेदों के सत्यस्वरूप का प्रचार हुआ
ओ३म्
ऋषि दयानन्द के आगमन से पूर्व विश्व में लोगों को वेदों तथा ईश्वर सहित आत्मा एवं प्रकृति के सत्यस्वरूप का स्पष्ट ज्ञान विदित नहीं था। वेदों, उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों से वेदों एवं ईश्वर का कुछ कुछ सत्यस्वरूप विदित होता था परन्तु इन ग्रन्थों के संस्कृत में होने और संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन उचित रीति से न होने से लोग वेद सहित ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्य एवं यथार्थस्वरूप से अनभिज्ञ ही थे। यदि ऐसा न होता तो ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा मृत्यु पर विजय के साधनों की खोज आदि का जो कार्य अपनी आयु के 14हवे वर्ष में आरम्भ किया था और जो 24 वर्ष बाद पूर्ण हुआ, वह उन्हें न करना पड़ता। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने देश के सन्ंयासियों, योगियों तथा धार्मिक विद्वानों से सम्पर्क किया था और उनसे ईश्वर तथा जीवात्मा आदि के सत्यस्वरूप को जानने आदि के विषय में चर्चायें की थी। उन्होंने उन सब ग्रन्थों को भी देखा था जो इस यात्रा काल में उन्हें पुस्तकालयों व विद्वानों से प्राप्त होते थे। इन सबका अध्ययन कर लेने पर भी वह अपनी विद्या को पूर्ण नहीं समझते थे और प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु विरजानन्द सरस्वती, मथुरा का शिष्यत्व प्राप्त करने तक वह धर्माधर्म विषय में निभ्र्रान्त नहीं हुए थे।
स्वामी दयानन्द का गुरु विरजानन्द से वेद वेदांगों का अध्ययन सन् 1860 से आरम्भ होकर सन् 1863 से पूर्ण हुआ था। वह योग विद्या में पहले ही पारंगत हो चुके थे। ऋषि दयानन्द समाधि सिद्ध योगी थे और अनुमान कर सकते हैं कि उन्होंने स्वामी विरजानन्द जी का शिष्यत्व प्राप्त करने से पूर्व ही ईश्वर का साक्षात्कार भी कर लिया था। वेद वेदांगों का अध्ययन पूरा होने तथा वेदों को प्राप्त कर उनका अवगाहन करने के बाद वह वेद ज्ञान से पूर्णतः परिचित व लाभान्वित हुए थे। वेदज्ञान को प्राप्त होकर उनके सभी भ्रम व शंकायें दूर हो गईं थी। वह ईश्वर और आत्मा के सत्यस्वरूप और इनके गुण, कर्म व स्वभाव से भलीभांति परिचित हो गये थे। विद्या समापित पर गुरु की प्रेरणा से उन्होंने संसार में व्याप्त धर्माधर्म विषयक अविद्या को दूर करने का संकल्प लिया था और अपने इस संकल्प को उन्होंने अपने जीवन की अन्तिम श्वास तक पूर्ण निष्ठा से निभाया। उनके जैसा महापुरुष जिसने अविद्या को दूर करने का कठोर व्रत व संकल्प लिया हो और उसे प्राणपण से निभाया भी हो, इतिहास में दूसरा नहीं मिलता। संकल्प तो कुछ अन्य महापुरुषों ने भी किए हैं और उन्हें निभाया भी है, ऐसे सभी महापुरुष प्रशंसा एवं सम्मान के पात्र हैं, परन्तु वेदों का जो सत्यस्वरूप ऋषि दयानन्द को प्राप्त व विदित हुआ था वह महाभारत के बाद भारत के किसी विद्वान, योगी तथा तत्ववेत्ता को प्राप्त नहीं हुआ था। ऐसा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन एवं समस्त उपलब्ध साहित्य के आधार न निश्चित होता है।
संसार से अविद्या को दूर करने के लिए ऋषि दयानन्द ने देशाटन करते हुए अपने उपदेशों एवं प्रवचनों से मौखिक प्रचार किया। वह स्थान स्थान पर जाते थे और वहां के अग्रणीय पुरुषों से सम्पर्क कर अपने व्याख्यानों का प्रबन्ध करते थे। व्याख्यानों में समाज के सभी वर्गों के मनुष्यों को उपस्थित होने की स्वतन्त्रता होती थी। किसी प्रकार का किसी मनुष्य से भेदभाव नहीं किया जाता था। पूना में उन्होंने सन् 1875 में जो 15 प्रवचन किए थे। उनके प्रवचनों को आशुलिपिकों ने लिखा था जो आज भी सर्वत्र सहजता से सुलभ होते हैं। इन प्रवचनों में ईश्वर, धर्माधर्म, जन्म, यज्ञ, इतिहास तथा ऋषि के आत्म वृतान्त विषयक उपदेश सम्मिलित हैं। ऋषि दयानन्द के प्रवचन सुनकर लोग आकर्षित होते थे। कारण यह था कि जैसे प्रवचन ऋषि दयानन्द के होते थे वैसा उपदेशक उन दिनों देश में कहीं नहीं था। ऋषि दयानन्द अपने विषय की भूमिका को प्रस्तुत कर उसके विभिन्न पक्षों व प्रचलित मान्यताओं को प्रस्तुत कर सत्य का मण्डन तथा असत्य का खण्डन करते थे। उनकी चुनौती होती थी कि कोई भी विद्वान उनकी मान्यताओं पर उनसे मिलकर शंका समाधान कर सकता था। विपक्षी विद्वानों को शंका समाधान, ज्ञान चर्चा व शास्त्रार्थ करने की छूट होती थी। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सभी मतों के विद्वानों से चर्चायें व शास्त्रार्थ किये और सबकी शंकाओं व अविद्यायुक्त मान्यताओं का सुधार करते हुए उनके वेदोक्त सत्य समाधान प्रस्तुत किये। उनका यह कार्य वर्षों उनके जीवन के अन्तिम समय तक चलता रहा। ऋषि दयानन्द के महत्वपूर्ण कार्यों में उनका 16 नवम्बर, 1869 को विद्या की नगरी काशी में 30 से अधिक सनातनी व पौराणिक विद्वानों से मूर्तिपूजा की सत्यता व वेदों से मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता पर शास्त्रार्थ किया जाना था। इस शास्त्रार्थ में पचास हजार लोगों की दर्शकों के रूप में उपस्थिति थी। यह शास्त्रार्थ ऋषि दयानन्द के पक्ष की विजय के रूप में समाप्त हुआ था।
मूर्तिपूजा पर काशी शास्त्रार्थ में विपक्षी विद्वान मूर्तिपूजा के समर्थन में वेदों का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके थे। तर्क एवं युक्ति से भी ईश्वर की मूर्ति का बनना व उसकी मूर्ति पूजा सत्य सिद्ध नहीं होती। ईश्वर की पूजा वेद, योगदर्शन में वर्णित ईश्वर के सत्य गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उनका ध्यान करते हुए स्तुति, प्रार्थना व उपासना द्वारा ही की जा सकती है। इसका कारण है कि ईश्वर सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी सत्ता है। वह हम सब मनुष्य के हृदय में स्थित आत्मा के बाहर व भीतर विराजमान है। हृदय वा आत्मा में ही उसका ध्यान व चिन्तन करने पर वहीं पर आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार होना सम्भव है। मूर्तिपूजा करने से ईश्वर का सम्मान नहीं होता। ईश्वर चेतन व ज्ञानवान सत्ता है तथा मूर्ति जड़ पदार्थों से बनती है। अतः मूर्ति में ईश्वर के गुणों के न होने से उससे ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ऋषि दयानन्द ने मूर्तिपूजा सहित समाज में धर्म के नाम पर प्रचलित सभी अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का खण्डन कर उन्हें दूर करने का प्रयास किया और उनके स्थान पर वेद निहित सत्य ज्ञान पर आधारित सब कार्यों को करने के विधान व विधियां भी प्रस्तुत की हैं।
ऋषि दयानन्द ने वेदों के प्रचार व जन जन में प्रकाश के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उनका सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ विश्वविख्यात ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ अविद्या को दूर करने वाला संसार का अपूर्व ग्रन्थ है। सत्यार्थप्रकाश सभी मतों की अविद्या का प्रकाश कर उनको दूर करने का उपाय व साधन है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लास में वेदों के जिन सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रकाश हुआ है वही विश्व के लोगों के लिए मानने योग्य सत्य धर्म व परम्परायें हैं। सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य संस्कृत व हिन्दी में किया है। इस वेदभाष्य को साधारण हिन्दी पाठी व्यक्ति भी पढ़कर वेदों के गूढ़ तत्वों को जान सकते हैं जो सदियों तक उनकी व उनके पूर्वजों की पहुंच से बाहर थे। वेदभाष्य से इतर ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। उनका जीवन चरित्र एवं उनका पत्रव्यवहार भी अनेक वैदिक विषयों का ज्ञान कराने में सहायक है। हमारा अनुमान है कि ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं इतर ग्रन्थों से धर्माधर्म विषयक सभी प्रकार की अविद्या व भ्रम दूर होते हैं और मनुष्य इनके अध्ययन से सत्यज्ञान को प्राप्त होकर तीन अनादि व नित्य सत्ताओं ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव को जानने में समर्थ होता है।
ऋषि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य के सभी भ्रम व शंकायें दूर हो जाती हैं। अतः मनुष्य जन्म लेकर आत्मा को ज्ञान का स्नान कराने के लिए सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन सब मनुष्यों को करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह अन्य ग्रन्थों को पढ़कर इतनी सहजता व सरलता से प्राप्त नहीं होता। यह भी बता दें कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ 14 समुल्लासों में है। इसमें 10 समुल्लास पूर्वार्ध के हैं और चार समुल्लास उत्तरार्ध के हैं। पूर्वार्ध के 10 समुल्लासों में वेद ज्ञान के आधार पर सत्य मान्यताओं का मण्डन किया गया है और अन्तिम चार समुल्लासों में वेदविरुद्ध अविद्या, मिथ्या मत व मान्यताओं का खण्डन है। सत्यार्थप्रकाश की कुल पृष्ठ संख्या लगभग 500 है। पूर्वार्ध के दस समुल्लासों की पृष्ठ संख्या लगभग 200 है। अतः यदि हम एक घंटा भी प्रतिदिन सत्यार्थप्रकाश पढ़े तो इसे लगभग 20 से 25 घंटों में पढ़ा जा सकता है। पूरे सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने में लगभग पचास घंटों का समय लग सकता है। अतः जीवन के इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को सभी मनुष्यों को पढ़ना चाहिये। इससे सभी भ्रम व शंकायें दूर होंगी। ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान होगा। ईश्वर की उपासना की विधि सहित धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी विषयों का ज्ञान भी होगा।
सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य का आत्मा सत्यज्ञान से आलोकित होगा। मिथ्या ज्ञान छूट सकता है व छोड़ा जा सकता है। मनुष्य सच्चा मनुष्य बनकर ईश्वर उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार भी कर सकता है। संसार में इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्य का जन्म हुआ है। इस लक्ष्य को प्राप्त होकर मनुष्य जन्म व मरण के सभी दुःखों छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। अतः सबको सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश से वेदों का महत्व एवं उसके सभी प्रमुख सिद्धान्त व मान्यताओं का प्रकाश होता है। ईश्वर व आत्मा का सत्य व निभ्र्रान्त स्वरूप भी सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से जाना जाता है। ऋषि दयानन्द के दशम समुल्लास में दिए वचनों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। ऋषि लिखते हैं ‘परमात्मा सब (मनुष्यों) के मन में सत्य मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय (नाश) को प्राप्त हों। इस में सब विद्वान लोग विचार कर विरोधभाव छोड़ के अविरुद्धमत (सत्य व सर्वसम्मत मत) के स्वीकार से सब जने (मनुष्य) मिलकर सब के आनन्द को बढ़ावें।’ ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य