फुटबॉल
बैग में फाइलों का पुलिंदा ठूंस कर एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस के चक्कर ही रितेश की दिनचर्या रह गयी थी। टेंडर भरना, टेंडर मिलने पर बिल जमा करवाने के बाद बिल की पेमेंट के लिए चक्कर ही रितेश की जीवन का अहम हिस्सा बन गया था। रितेश भी क्या करे? काम करके परिवार की परवरिश करनी है। अपने शौंक भूल गया। एक मशीनी जिंदगी में रितेश जीने लगा। छुट्टी वाले दिन भी काम करना होता कि सोमवार सुबह टेंडर भरने की अंतिम तारीख है। रात तक थक कर चूर हो कर रितेश बिस्तर पर लेटता है, उसे नींद आ जाती है।
आज सुबह से रितेश बहुत परेशान था। कारण एक टेंडर हाथ से निकल गया। फोन पर अपने बॉस को टेंडर नही मिलने की जैसे ही सूचना दी, बॉस ने रितेश की ऐसी तैसी कर दी, जैसे टेंडर उसकी वजह से निकला हो। एक तो मौसम गर्म, भयंकर लू चल रही थी। बॉस की गर्मी ने रितेश का मूड खराब कर दिया। दोपहर के तीन बजे थे, वह वापिस ऑफिस नही गया। रास्ते में सड़क किनारे बस स्टॉप के बेंच पर बैठ गया।
एक के बाद एक बस आती रही। सवारियां बस में चढ़ती और बस आगे बढ़ जाती लेकिन रितेश बसों को आते-जाते देखता रहा। उसका दिमाग शून्य हो गया। इतना अधिक जान लगा कर काम करने का फल मिला भी तो क्या, सिर्फ डांट। बॉस अपनी निराशा अपने जूनियर पर उतारते हैं। आधे घंटे तक रितेश गुमसुम बैठा रहा। बैग से पानी की बोतल निकाली। थोड़ा पानी पिया। पानी भी गर्म हो गया था। प्यास बुझाने के लिए गर्म पानी ही पी लिया।
पानी पीने के पश्चात बिना किसी उद्देश्य के साथ आगे बढ़ पड़ा। ऑफिस बिल्डिंगों के बाद रिहाशयी कॉलोनी शुरू हो गयी। चलते-चलते उसकी टांग पर एक फुटबॉल लगी। रितेश ने मुड़ कर देखा। सड़क किनारे एक छोटे से पार्क में सात आठ बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे। पैर पर लगी फुटबॉल के दर्द को भूलकर फुटबॉल को उठाया। बच्चे डर गए कि कहीं अंकल नाराज होकर फुटबॉल वापिस ही न करें। बच्चे असमंजस में थे और घबरा कर रितेश की ओर देखने लगे।
निराशा और हताशा से भरपूर रितेश ने बच्चों की ओर देखा और अचानक से उसे अपने बचपन के दिन याद आ गए। स्कूल और कॉलेज की फुटबॉल टीम का सदस्य था। नौकरी के चक्कर में उसने फुटबॉल खेलना छोड़ दिया था। जितना भी काम कर लो, कंपनी कभी खुश नही होगी। उसे स्वयं ही खुशियां ढूंढनी होंगी। उसे अपने पुराने दिन याद आ गए। फुटबॉल को एक किक लगा कर बच्चों के बीच पहुंचा दी। बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नही था। वे फुटबॉल खेलने लगे। रितेश बच्चों को फुटबॉल खेलते देखने लगा।
कुछ देर तक बच्चों का खेल देखने के बाद रितेश बच्चों के पास पहुंचता है।
“तुमको मैं फुटबॉल के गुर सिखाता हूँ। सीखोगे?”
“हाँ।“ सभी एक स्वर में बोले।
रितेश बच्चों को फुटबॉल के गुर सिखाते हुए उनके साथ खेलने लगा। एक घंटे तक रितेश बच्चों के संग फुटबॉल खेलता रहा। रितेश के कपड़े धूल से सन गये। बदन पसीने से तरबतर था। बच्चों के साथ खेल कर रितेश की निराशा दूर हो गयी। अब पांच बज रहे थे। रितेश ने बस पकड़ी और घर पहुंचा। सोसाइटी के बच्चे झुंड़ बना कर बैडमिंटन खेल रहे थे। रितेश बच्चों के संग बैडमिंटन खेलने लगे। पत्नी रिया ने बालकनी से आवाज दी।
“रितेश घर नही आओगे क्या? बच्चा बन कर खेलने लगे हो।“
“थोड़ी देर में आता हूँ। रोहन को नीचे भेज। उसके साथ फुटबॉल खेलता हूँ।“
पापा की आवाज सुनकर रोहन मम्मी को नजरअंदाज करके फुटबॉल लेकर सीढियां कूदता हुआ नीचे पहुंचता है और पापा रितेश संग फुटबॉल खेलने लगता है।
रोहन संग खेलते हुए रितेश सोचता है।
“ऑफिस वालों ने जिंदगी फुटबॉल बना दी है। कभी इधर किक और कभी उधर।“