ऋषि दयानन्द को शिवरात्रि को हुए बोध से विश्व से अविद्या दूर हुई
ओ३म्
वर्तमान समय से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ था। महाभारत काल तक वेद अपने सत्यस्वरूप में विद्यमान थे जिसके कारण संसार में विद्या व सत्य ज्ञान का प्रचार व प्रसार था। महाभारत के बाद वेदों के अध्ययन अध्यापन तथा प्रचार में बाधा उत्पन्न हुई जिसके कारण विद्या धीरे धीरे समाप्त होती गई और इसका स्थान अविद्या व अविद्यायुक्त मतों, मान्यताओं व पन्थों आदि ने ले लिया। अविद्या को अज्ञान का पर्याय माना जाता है। अविद्या के कारण लोग ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप तथा ज्ञान से युक्त मनुष्यों के सत्य वैदिक कर्तव्यों को भी भूल गये थे। वेदों के अध्ययन व प्रचार की समुचित व्यवस्था न होने के कारण अविद्या व अविद्या से उत्पन्न होने वाले अन्धविश्वास तथा सामाजिक कुरीतियों में वृद्धि होती गई। सृष्टि के आदि काल से आर्यावर्त की सीमाओं में वर्तमान के अनेक देश आते थे। आर्यावर्त के अन्तर्गत राज्य भी सिकुड़ कर छोटे छोटे स्वतन्त्र राज्यों व रियासतों में परिणत हो गये थे। अन्धविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों के कारण मानव का निजी जीवन अविद्या से युक्त था। इसके कारण सगठित रूप से देश्ज्ञ व समाज की उन्नति के जो प्रयास करने होते हैं वह भी शिथिल व न्यून होते थे जिससे देश असंगठित होता गया और देश में अविद्या पर आधारित अनेक विचारधारायें एवं अनेक धार्मिक मत व सम्प्रदाय अस्तित्व में आते रहे।
मध्यकाल व उसके बाद के सभी मत अविद्या के पर्याय अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीतियों से युक्त हो गये। मनुष्य समाज भी नाना प्रकार की जन्मना जातियों एवं ऊंच-नीच की भावनाओं से युक्त हो गया। ऐसे समय में मनुष्य जाति की उन्नति व उसके सुखों की प्राप्ति की सम्भावनायें भी न्यून व समाप्त हो गईं थीं। देश के कुछ भाग पहले यवनों तथा बाद में अंग्रेजों की गुलामी को प्राप्त हुए जिससे देश की जनता नरक के समान दुःखों से युक्त जीवन जीने पर विवश हुई। ऐसे अज्ञानता वा अविद्या के समय में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द एक पौराणिक शिवभक्त परिवार में जन्में थे। अपनी आयु के चौदहवें वर्ष में शिवरात्रि पर्व पर मूर्तिपूजा व व्रत उपवास करते हुए उन्हें बोध की प्राप्ति हुई थी। उन्हें बोध हुआ कि सच्चे शिव व उसकी मूर्ति के स्वरूपों व गुण, कर्म व स्वभावों में अन्तर है। जिस सच्चे शिव की लोग उपासना करते हैं वह उसकी मूर्ति बनाकर परम्परागत विधि से पूजा करने पर वह उपासना सत्य सिद्ध नहीं होती। उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनेक आशंकायें उत्पन्न र्हुइं। वह उनके समाधान अपने विद्वान पिता तथा विद्वान पण्डितों से जानना चाहते थे परन्तु किसी से उनका समाधान नहीं हुआ। कुछ काल बाद अपनी बहिन व चाचा की मृत्यु होने पर भी उन्हें मृत्यु की औषधि को जानने का बोध हुआ था। अपने प्रश्नों के उत्तर न मिलने और इनके अनुसंधान में अपने माता-पिता व परिवार का सहयोग न मिलने के कारण उन्होंने आयु के बाइसवें वर्ष में अपने पितृगृह का त्याग कर दिया था और अपना जीवन अपनी आशंकाओं को दूर करने सहित सच्चे शिव व ईश्वर की खोज, उसकी प्राप्ति, ईश्वरीय ज्ञान वेद के अध्ययन व प्रचार सहित देश व समाज सुधार के कार्यों में व्यतीत किया।
ऋषि दयानन्द योग व वेद विद्या में प्रवीण होकर ऋषि बने थे। उन्होंने अपने तप व अध्ययन तथा सत्यासत्य की परीक्षा से सत्य व असत्य के यथार्थस्वरूप को जान लिया था। उन्होंने जाना था कि मनुष्यों के सभी दुःखों का कारण अविद्या वा वेदों के सत्य ज्ञान को न जानना है। उन्होंने अनुभव किया था कि वेदों के सत्यार्थ को जानकर तथा उसके अनुरूप सभी देश व विश्ववासियों का जीवन बनाकर ही अविद्या को दूर कर विश्व के सभी मनुष्यों के जीवन को सत्य ज्ञान, शारीरिक व आत्मिक बल सहित सुख व शान्ति से युक्त किया जा सकता है। इसी कार्य को उन्होंने पूर्ण निष्पक्षता तथा अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर किया जिसका पूरे विश्व पर सकारात्मक प्रभाव हुआ। उनके कार्यों से पूरे विश्व में ही वेदों व विद्या के सत्यस्वरूप का प्रकाश हुआ। योग विद्या में निष्णात होने तथा विश्व में वेदों का प्रचार कर अविद्या को दूर करने में आंशिक सफलता प्राप्त करने के कारण से ही ऋषि दयानन्द विश्व के सभी महापुरुषों से भिन्न एवं ज्येष्ठ हैं। उनके जीवन तथा कार्यों को जानकर, वेदाध्ययन कर तथा वैदिक साहित्य उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ही मनुष्य जीवन को विद्या से युक्त तथा अविद्या से मुक्त किया जा सकता है। विद्या की प्राप्ति कर ईश्वर का साक्षात्कार करना तथा अमृत व मोक्ष को प्राप्त होना ही मनुष्य जीवन व जीवात्मा का मुख्य लक्ष्य होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदप्रचार कर सभी मनुष्यों को ईश्वर का सत्य ज्ञान कराया। उन्होंने मनुष्यों को ईश्वर की प्राप्ति, उसका साक्षात्कार व प्रत्यक्ष कराने सहित मोक्ष प्राप्ति में अग्रसर कर जीवन को कृतकार्य होने का ज्ञान कराया। इस कारण से ऋषि दयानन्द विश्व के अद्वितीय महापुरुष, महामानव, वेद ऋषि तथा ईश्वर के एक महान पुत्र हैं।
ऋषि दयानन्द को अपने जीवन के चौदहवें वर्ष में शिवरात्रि के दिन ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उपासना करने का बोध हुआ था। इसी का परिणाम उनके ईश्वर सिद्ध योगी बनने सहित वेद वेदांगों का अपूर्व विद्वान व ऋषि बनने के रूप में हमारे सम्मुख आया। ऋषि दयानन्द सच्चे वेद प्रचारक, ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान कराने वाले, सोलह संस्कारों से युक्त जीवन बनाने हेतु संस्कार विधि ग्रन्थ लिखकर देने वाले, समाज में प्रचलित सभी अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों सहित सभी मिथ्या व कृत्रिम सामाजिक मान्यताओं को दूर करने वाले, पूर्ण युवावस्था में कन्या व वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार विवाह का विधान करने वाले, विधवाओं व महिलाओं के प्रति विशेष सम्मान एवं आदर की भावना रखने वाले, महिलाओं पर मध्यकाल में हुए अन्यायों को दूर कर उनके वेदाध्ययन एवं नारी सम्मान का अधिकार दिलाने वाले, देश को आजादी का मन्त्र देने वाले तथा जीवन के सभी क्षेत्रों से अविद्या व मिथ्या मान्यताओं को दूर कर सत्य कल्याणप्रद वैदिक मान्यताओं को प्रचलित कराने वाले अपूर्व महापुरुष हुए हैं। उनके जीवन चरित्र सहित उनके प्रमुख ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित वेदभाष्य को पढ़कर उनके ज्ञान व व्यक्तित्व से परिचित हुआ जा सकता है। ऋषि दयानन्द अपने व पराये की भावना से सर्वथा मुक्त एवं पक्षपातरहित महात्मा व ऋषि थे। उन्होंने स्वमत व परकीय मतों के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया।
ऋषि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों व प्राणियों को ईश्वर की सन्तान व अपने समान सुख व दुःखों का अनुभव करने वाला मानते थे। गाय के प्रति एक सच्चे मानव की वेदना को अनुभव कर उन्होंने गोरक्षा का महान कार्य किया और गोरक्षा व गोसंवर्धन पर एक अद्वितीय लघु ग्रन्थ ‘गोकरुणानिधि’ लिखा। ऋषि दयानन्द ने ही सत्य वैदिक मान्यताओं वा वैदिक धर्म के प्रचार हेतु ही आर्यसमाज संगठन की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में की थी। आर्यसमाज ने देश से अन्धविश्वास, ईश्वर की मिथ्यापूजा को दूर करने सहित वायुशोधक तथा स्वास्थ्यप्रद यज्ञों के प्रचार का भी महान कार्य किया। देश को अविद्या व अशिक्षा के कूप से निकालने के लिए ऋषि दयानन्द द्वारा प्रचारित विचारों के अनुसार उनके शिष्यों ने देश में गुरुकुल तथा दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेजों को स्थापित कर देश से अज्ञान दूर करने का भी अपूर्व कार्य किया। ऋषि दयानन्द तथा उनके आर्यसमाज ने आर्य हिन्दू जाति को अनेकानेक विदेशी षडयन्त्रों तथा उन्हें धर्मान्तरित होने से बचाया। विदेशी शासन व विदेशी मत से देश को सुरक्षित करने की प्रेरणा की जो उनके बाद सफल हुई लगती है। ऐसे अनेकानेक कार्य ऋषि दयानन्द ने किये जिनकी गणना करना कठिन व असम्भव है। यह सब लाभ ऋषि दयानन्द को शिवरात्रि पर हुए बोध के कारण सम्भव हो सके। इसके लिए ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है। सारा देश व मानवता ऋषि दयानन्द की ऋणी है। देश व विश्व के सभी लोग ऋषि दयानन्द के कार्यों से किसी न किसी रूप में लाभान्वित हैं। ईश्वर व ऋषि दयानन्द के उपकारों के लिए उनको सादर नमन है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य