मानव का मानव से प्रेम बने
मानव का मानव से प्रेम बने,
नाहक धर्मो में बट करके,
क्यों मानवता को खोते हो,
एक धरती और एक गगन,
एक सूरज और एक ही चंद्र,
एक जीवन का आना है,
एक जीवन का जाना है।
फिर क्यों जीवन खेल बने,
मानव का मानव से प्रेम बने।
देख रहा है भविष्य हमें,
है वर्तमान भी घबराया,
है धर्म विशेष ही मानवता,
क्यों नहीं समझ मे आया,
हिन्दू , मुस्लिम ,सिख, इसाई,
सबका आपस में मेल बने,
मानव का मानव से प्रेम बने।
है धर्म वही जो दीन- दुखी में,
ईश्वर का आभास करे,
है धर्म वही जो सबसे पहले,
मानवता पर विश्वास करे,
फिर धरती यह स्वर्ग बने,
जब मानव का मानव से प्रेम बने,
मानव का मानव से प्रेम बने।
— अंजनी द्विवेदी