स्त्री
स्त्री सर्वदा सहनशील होती है,
हर परिस्थिति में धैर्य धारण करने वाली
टूट कर भी न बिखरने वाली
कितने संयम को समेटे अपने वज़ूद में
न जाने कितने ताने उलाहने सह कर भी
हर पल मुस्कुराती रहती है स्त्री,
न जाने कितने संस्कारों को धारण करती है
कितने रिश्तों को ओढ़ती है
अपनी स्नेह की छाँव में समेटती है रिश्तों को
बिखरने नहीं देती ना ही उदास होने देती है
एक मजबूत गाँठ बाँध देती है रिश्तों के बीच
बचा लेती बिखरने से।
रिश्तों की ख़ातिर झूठ भी बोल जाती है
ताक़ि रिश्ते धूमिल न हों
वक़्त वक़्त पर रीती रिवाज़ों को तहज़ीब
का आवरण उढ़ाती है,
और निर्वहन कर जाती है बख़ूबी
अपने कर्तव्यों का।
इसलिए नहीं की वह स्त्री है
इसलिए भी नहीं कि वह अबला है.कमज़ोर है।
बल्कि इसलिए कि वह
‘पुरुष्त्व के दम्भ’ से बहुत दूर रहती है।
इसलिए कि स्त्री ‘अहंकार’ धारण नहीं करती
वह रिश्तों के लिए झुंकना जानती है।
इसलिए कि वो हर पल ”प्रेम” में रहती है।
हर पल अपने पल्लू से ‘तहज़ीब’ बांधे रहती है।
कई रिश्तों को एक साथ बुनती है.उनमें
प्रीत का रंग भरती है।
फिर सहेजती है संवारती है और
आखिरी सांस तक जोड़े रखती है।
वो भूलती नहीं कभी अपनी चाहत को
वो खुद टूट कर बिखर जाती है।
पर अपना रिश्ता कभी नहीं बिखरने देती।
क्यूंकि वह ”स्त्री” है!!
— मणि बेन द्विवेदी