सामाजिक

निंदा ही कर्म, निंदा ही धर्म

निंदक दो तरह के होते है।एक निंदक वो होते है जो निंदनीय व्यक्ति की ही निंदा करते है
और दूसरा होते है आत्मनिर्भर निंदक जो जीवन मे निंदा को ही अपनी जमा-पूँजी मान बैठे है जो निंदा के गहरी वैतरणी में कल्लोल मार-मार कर हमेशा अपना लम्बा-चौड़ा व्यापार बढ़ाने में लगे रहते है।
मानव-मण्डली मे ये सदा अपना कद दुसरो के उत्कृष्ट चरित्र को निकृष्ट कर बढाने की तहकीकात में रहते है।

इनके जीवनखाते में आई निंदा एक ऐसी जमापूँजी है जो जीवन के अंतिम पड़ाव में भी किसी को नहीं देते आखिरकार यह जमापूँजी शमशान में उनके साथ जलकर ही खत्म होती है।

निंदा ही खाते है,निंदा ही पीते है या यूं समझे कि अगर दो वक्त की रोटी भी नही मिली तो किसी भोले-भाले सज्जन व्यक्ति की भी निंदा कर कर के अपना पेट फुला लेते है।

इनके लिए तो निंदा ही कर्म औऱ निंदा ही धर्म होता है। ये अपने काम मे इस प्रकार कर्तव्यनिष्ठ होते है कि “सब चीज छूटे तो छूटे,पर ये निंदा कबहुँ ना छूटे” के सिद्धांत पर चलते है।
वैसे भी मनुष्य के जीवन में निंदा का बड़ा असर पड़ता है।निंदा फर्श पर पड़े व्यक्ति को अर्श पर लाकर खड़ा कर देती है तो यही निंदा अर्श से लाकर फर्श पर धड़ाम से गिरा भी देती है।

निंदा का दायरा भी बड़ा अजीब होता है किसी सज्जन पुरूष की बड़ाई करने वाले अच्छा से अच्छा व्यक्तित्व से पूरित व्यक्ति भी उसके लिए इसी दायरे में आता है।
निंदा करने वाला व्यक्ति जिस चीज की कभी निंदा नही करता वो है उसकी निंदा

आशुतोष यादव

बलिया, उत्तर प्रदेश डिप्लोमा (मैकेनिकल इंजीनिरिंग) दिमाग का तराजू भी फेल मार जाता है, जब तनख्वाह से ज्यादा खर्च होने लगता है।