लघुकथा -बड़ा आदमी
रघु को बेटी की शादी के लिए रूपयों की जरूरत थी। कारखाने में मजदूरी करने से जो भी वेतन मिलता था वह घर के खर्च और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए ही कम पड़ जाता था। लेकिन उसे कारखाने के मालिक पर भरोसा था कि वे जरूर मदद करेंगे। यही सोचकर वह एक दिन मालिक से मिला।
“मालिक, मेरी बेटी की शादी होने वाली है। कुछ रूपयों की मदद चाहिए। मैं धीरे-धीरे यह कर्ज़ चुका दूंगा।”
“अरे रघु, यह तो बहुत खुशी की बात है। तुम तो यहां के पुराने और कर्मठ कर्मचारी हो। यहां तक कि तुम्हारे पिताजी भी इसी फैक्ट्री में काम करते थे”- मालिक ने कहा।
“जी मालिक, मेरे पिताजी के समय बड़े मालिक थे। वे भी आपकी तरह ही रहमदिल थे। मुझे याद है कि मेरे पिताजी को जब भी पैसों की जरूरत होती थी, बड़े मालिक हमेशा मदद करते थे”- रघु बोला।
“हां रघु, पापा तो सारे मजदूरों को बहुत मानते थे। उनके सुख-दुख में हमेशा साथ रहते थे”- मालिक ने कहा।
“जी मालिक”
“जब तुम बूढ़े हो जाओगे और तुम्हारा बेटा यहां मजदूरी करेगा उस समय मेरा बेटा कारखाने का मालिक होगा। और मैं चाहूंगा कि मेरा बेटा भी मजदूरों की इसी तरह मदद करे।
रघु मुस्कराया और मन ही मन बुदबुदाया- “ऐसा नहीं होगा मालिक। जो भूल मेरे पिताजी ने की, वही भूल मैं नहीं कर रहा हूँ। मेरा बेटा स्कूल जाता है…. मैं उसे पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाना चाहता हूँ….”
— विनोद प्रसाद