कविता

अर्जुन की व्यथा

नहीं कर पाऊंगा कृष्ण मैं उनका अपमान,
गुरु द्रोण, पितामह भीष्म हैं सूर्य  समान।
गाण्डीव गिरता जाता समक्ष उनके
क्या संभालूंगा मैं तीर कमान ?
ये कैसा मायाजाल केशव तुमने बिछाया है ?
अपनों के सामने अपनों को खड़ा पाया है।
दांव पर लगा मेरे पुरखों का सम्मान,
क्या संभालूंगा मैं तीर कमान ?
माना कि द्रौपदी है मेरी प्रिय रानी,
उसके सम्मान की खातिर
इस विध्वंस की मैंने ठानी।
परंतु केशव अब नही में लड़ पाऊंगा।
जिनकी उंगली पकड़ चला
कैसे ले लूँ उनके प्रान ?
क्या संभालूंगा मैं तीर कमान ?
माधव ने जब अर्जुन को निसहाय पाया,
मंद – मंद मुस्कान हुई अधरों पर
जो अर्जुन समझ ना पाया।
भर स्वास फिर केशव बोले,
हे पार्थ ! उठो और युद्ध करो।
ये भ्रमजाल मेरा ही है फैलाया,
तुम कोन हो किसी को मारने वाले
काल से कौन  है बच पाया।
समय होने पर सब कुछ
काल के ग्रास में है समाया।
उठा अर्जुन फिर भर हुंकार
एक – एक को उसने मारा।
किया युद्ध फिर घमासान
जीत कर महाभारत को
अधर्म पर धर्म का ध्वज लहराया।
अब संभाल तीर कमान।
— उषा सोलंकी 

उषा सोलंकी

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