किसान आंदोलन में अब केवल राजनीति हो रही
राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर कृषि कानूनों के विरोध में चल रहा आंदोलन अब सौ दिन पूर्ण कर चुका है तथा अब अपने अगले पड़ाव की ओर चल पड़ा है। किसान नेताओं का कहना है कि उनका आंदोलन काफी लंबा चलेगा। आंदोलन को जीवंत बनाये रखने के लिए आंदोलनजीवी किसान नेता व उनके समर्थक एक कैलेंडर बनाकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं। सभी किसान संगठनों ने चार माह में तीसरी बार भारत बंद का ऐलान किया है तथा वे एक बार फिर से रेल रोको तथा चक्का जाम जैसे आंदोलन करने जा रहे हैं। पश्चिमी उप्र तथा हरियाणा में किसान महापंचायतों के माध्यम से अपनी राजनैतिक जमीन तलाश रहे राजनैतिक दल व उनके नेता लगातार किसानों को भड़का रहे हैं, जिसके कारण किसान नेताओं तथा सरकार के बीच चला आ रहा लंबा गतिरोध समाप्त नहीं हो पा रहा है। किसान नेताओं ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए तथा अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने के लिए किसान नेता अब पश्चिम बंगाल सहित जिन प्रांतों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां पर भी किसान महापंचायत करके बीजेपी को हराने की अपील करने जा रहे हैं। लेकिन इस बीच यह किसान नेता यह भूल गये हैं कि जिन पांच प्रांतों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उसमें केवल असम ही एक ऐसा प्रांत है जिसमें बीजेपी की सरकार है, जबकि बंगाल के राजनैतिक इतिहास में वहां पर बीजेपंी पहली बार इतनी मजबूती से चुनाव लड़ने जा रही है।
जिस प्रकार से यह किसान आंदोलन आगे बढ़ा है तथा किसान महापंचायत में उप्र में प्रियंका गांधी वाड्रा और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गहरी रुचि दिख रहे हैं, उससे साफ पता चल रहा है कि किसान नेताओं का एक ही उददेश्य बचा है कि बीजेपी हराओ, मोदी भगाओ तथा देश की छवि को अंतरर्राष्ट्रीय छवि को तहस-नहस किया जाये। किसान नेताओं में सबसे अधिक राकेश टिकैत पूरी तरह से बेनकाब हो चुके हैं। यह किसान नेता अपने भाषणों में कहते हैं कि किसान महापंचायतों में किसी भी दल के नेता को जगह नहीं दी जायेगी, यह आंदोलन पूरी तरह से किसानों का है और गैर-राजनैतिक है। लेकिन असलियत यह है कि उप्र में किसान महापंचायतो मे प्रियंका गांधी और अरविंद केजरीवाल सहित सभी विरोधी दल अपने लिए अवसरों की तलाश कर रहे है।
इनमें सबसे बड़ी ड्रामेबाज नायिका प्रियंका गांधी ही निकली हैं। वह महापंचायतों में शामिल हो रही है। लगातार भड़काऊ बयानबाजी कर रही हैं। वह किसानांे की सबसे बड़ी हमदर्द बन रही हैं। वह इस कदर झूठ बोल रही हैं कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं रह गयी है। वह कहती हैं कि जब किसान रोता है, तो पीएम मोदी हंसते हैं। वह कह रही हैं कि उनके भाई ने किसानों के लिए सदन में दो मिनट का मौन रखा। वह मेरठ में किसानों को ट्रैक्टर चलाकर दिखा रही है। अगर पिछले सत्तर साल में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों ने देश के किसानों का भला किया होता तो आज देश के किसान का यह हाल न हुआ होता। किसान महापंचायतों में जिस प्रकार से नेता पहुंचने लगे हैं। उसके कारण यह किसान आंदोलन अब केवल समाचार जगत की सुर्खियों तक ही सीमित होकर रह गया है जबकि आम जनमानस की नजरों से यह ओझल हो चुका है तथा आम जनता का इस किसान आंदोलन के प्रति कोई रुचि नहीं रह गयी है। देश के जनमानस को यह अच्छी तरह समझ में आ चुका है कि अब आंदोलन के नाम पर केवल राजनीति चमकायी जा रही है। किसान आंदोलन भटक चुका है तथा अपवित्र हो चुका है।
हां, ये सभी किसान नेता किसानों के लिए ही भस्मासुर बन बैठे हैं। अपने भड़काऊ बयानों से किसानों को हिंसा व उपद्रव के लिए लगातार भड़का रहे हैं। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ ये किसान नेता संसद का घेराव करने और वहीं पर खेती करने, फसल बोने व बेचने जैसी अराजक धमकियां दे रहे हैं। किसान महापंचायतों में बीजेपी व संघ के स्वयंसेवकों का गांवों में बहिष्कार करने की धमकियां दी जा रही हैं। इन किसान नेताओं ने हरियाणा में सत्तारूढ़ बीजेपी गठबंधन की सरकार को गिराने की भी साजिश रची है। इसी कारणवश कांग्रेस की ओर से वहां पर विधानसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था और विपक्ष की ओर से पूरा प्रयास भी किया गया था लेकिन सतर्कता के चलते कांग्रेस का यह दांव विफल हो गया। अभी हाल ही में ब्रिटिश संसद मेें भारत के तीनों कृषि कानूनों पर बहस की गयी थी जिसे भारत सरकार ने भारत सरकार ने अदरूनी मामलों मे हस्तक्षेप मानकर कड़ी फटकार लगायी थी लेकिन कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ब्रिटिश संसद की बहस का समर्थन कर डाला। वैसे भी आजकल विरोधी दलों के नेता हर उस बात का समर्थन कर रहे हैं जिससे देश की छवि को नुकसान पहुॅचता हो। लेकिन वहां की संसद की बहस में एक बात और साफ हुई थी कि वहां की सरकार ने भारत के तीनों कृषि कानूनों को काफी बेहतर व किसानों के लाभकारी बताया था और यह भी कहा था कि यह भारत का अंदरूनी मामला है। कांग्रेस व उसके नेता भारत की छवि को खराब करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं।
किसान नेता भले ही पश्चिमी उप्र में किसान महापंचायत करके अपनी जमीन को मजबूती देने का प्रयास कर रहे हो लेकिन वहां का युवा वर्ग व किसानों का बहुत बड़ा वर्ग आंदोलन को पूरी तरह से राजनैतिक मान रहा है और इस वर्ग का कहना है कि 26 जनवरी को लाल किले की हिंसा के बाद ही धरना समाप्त कर देना चाहिए था। इन लोगोें का मानना है कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है, लेकिन यह ठीक नहीं है कि बेवजह की जिद पकड़कर समाधान के रास्तों में रोज नया अडंगा लगाया जाये, बाधा खड़ी की जाये। पश्चिमी उप्र के जनमानस के एक बड़े वर्ग का यह मानना है कि अब तक इतिहास गवाह है कि आंदोलनों का हल बातचीत से ही निकला है। युवाओं का कहना है कि दिल्ली सीमा पर आंदोलन नहीं राजनीति चल रही है। सरकार कई बार कह चुकी है कि वह संशोधनों के लिए तैयार है, लेकिन आंदोलनजीवी किसान नेता व उनके ऊपर हाथ रखकर बैठे तथाकथित राजनेता कानून वापस लेने मांग कर रहे हैं। तीनों कृषि कानून संसद से पारित हो चुके है तथा अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी चल रहा है और किसान नेताओं को भी पता है कि एक बार संसद से कानून पारित हो जाने के बाद उसकी वापसी पूरी तरह से असंवैधानिक हो जाती है फिर भी वे अपनी मांग पर अड़े हैं। अब देश की जनता व मीडिया का भी इस आंदोलन से धीरे-धीरे मोहभंग होता जा रहा है। किसान आंदोलन की खबरें अब बहुत छोटी- छोटी प्रकाशित हो रही हैं।
हर पढ़ा लिखा किसान यह बात अच्छी तरह से समझ चुका है कि ये तीनों कानून काफी समय से बुरी हालत में चल रही कृषि व्यवस्था में सुधार के लिए हैं। तीनो कानूनों की कोई भी धारा उनकी जमीन नहीं छीन रही। कांट्रैक्ट फार्मिंग से लेकर मंडियों का रेग्युलेशन सरकार के कृषि सेक्टर में सुधार की सकारात्मक सोच को बता रहा है। युवा किसानों का मत है कि तीनोें कृषि कानून मोदी सरकार का एक सकारात्मक कदम है। आंदोलन के नाम पर इतने लंबे समय तक रास्तों को बंधक बनाना ठीक नहीं। लाल किले की हिंसा ठीक नहीं उससे सभी को दुःख पहंुचा है। भारत बंद व चक्का जाम करने से किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। अपितु बार-बार ऐसा करने से किसानो को जो थोड़ी बहुत सहानुभूति मिल रही है, वह भी समाप्त हो जायेगी। इस आंदोलन का हल केवल बातचीत से ही निकल सकता है और अब आंदोलित लोगों को ही आगे आकर समस्या का हाल निकालना चाहिये।
प्रधानमंत्री सदन के दोनों सदनों में कानूनों को पहले ही वैकल्पिक बता चुके हैं तथा यह भी कह रहे हैं कि कानूनों के पहले जो व्यवस्था थी वह भी लागू रहेगी। सरकार स्पष्ट कर चुकी है कि एमएसपी लागू थी, है और रहेगी। अतः देश हित में नेता आगे आकर अपनी सभी समस्याओं का समाधान करें, न कि समस्या का कारण बनें। यह आंदोलन जितना लंबा खिंचेगा उससे किसान नेताओं की छवि को ही दाग लगेगा और देश की जनता के बीच सहानूभूति भी समाप्त होती चली जायेगी। यह किसान नेताओं के लिए एक बहुत बढ़िया अवसर है कि वह किसानों की सत्तर साल से चली आ रही समस्याओं का समाधान निकालें और भारत प्रगति के पथ पर बढ़ चले। अगर किसान नेता ऐसा करने में विफल रहते हैं तो यह आंदोलनजीवियों के ही कारण संभव होगा। किसान नेताओं को आंदोलन के संकुचित दायरे से बाहर निकलना होगा।
ये किसान नेता जिस प्रकार से गांवों में बीजेपी व संघ का बहिष्कार करने की अपील कर रहे है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण व लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है। यह उनकी सहिष्णुता की भावना को ही समाप्त कर रहा है तथा उनकी यह अपील अभिव्यक्ति की आजादी का हनन भी है।
— मृत्युंजय दीक्षित