हमें धर्म और उपासना के यथार्थस्वरूप व रहस्य को जानना चाहिये
ओ३म्
आजकल सामाजिक जगत तथा राजनीति जगत में धर्म के नाम की खूब चर्चा होती है परन्तु लगता है कि इसकी चर्चा करने वाले लोगों को धर्म का यथार्थस्वरूप व धर्म शब्द का अर्थ ज्ञात नहीं होता। धर्म संस्कृत का शब्द है जो यथावत् हिन्दी भाषा में भी प्रयोग किया जाता है। मनुष्य एक चेतन प्राणी होता है। वह सोच सकता है, ज्ञान प्राप्त कर सकता है, अपने अज्ञान को दूर व समाप्त कर सकता है तथा विचार व चिन्तन कर नये अनुसंधान कर अपने तथा दूसरों के जीवन को सुखद एवं शान्ति से युक्त कर सकता है। संसार में जितने भी पदार्थ होते हैं उन सबमें प्राकृतिक व ईश्वर प्रदत्त गुण व स्वभाव आदि होते हैं। हम अग्नि पर ध्यान दें तो यह ताप, प्रकाश सहित पदार्थों को जलाने की क्षमता व गुणों वाली होती है। इसका स्वभाव भी दूसरे पदार्थों को जलाना, अन्धकार दूर कर प्रकाश करना तथा शीत को दूर कर उष्णता व ताप प्रदान करना होता है। अतः यदि पूछा जाये कि अग्नि का धर्म क्या है तो सभी स्वीकार करेंगे कि अग्नि का धर्म व स्वभाव प्रकाश करना, ताप देना तथा अन्धकार आदि को दूर करना होता है। अग्नि में यदि यह गुण व स्वभाव न हो तो ऐसे किसी पदार्थ को अग्नि नहीं कहा जाता।
इसी प्रकार से वायु के अपने गुण हैं जो सदा से उसमें हैं और सदा रहेंगे। जैसे वह सृष्टि के आरम्भ में थे आज भी वैसे ही हैं और सृष्टि की प्रलय तक उसमें विद्यमान रहेंगे। वायु हमारी श्वास प्रक्रिया को चलाती है तथा हमें जीवित रखती है। पदार्थों के जलने में भी वायु का होना आवश्यक होता है। वायु में स्पर्श गुण होता है जिसका ज्ञान हमें अपनी त्वचा के द्वारा होती है। हम शीत प्रदेश में जाते हैं तो हमें वहां की शीतल वायु का ज्ञान अपनी त्वचा में शीतलता की अनुभूति से होता है। उष्ण प्रदेश में जाने पर वहां की वायु हमें उष्णता का स्पर्श द्वारा अनुभव कराती है। इसी प्रकार से सृष्टि में अग्नि, जल, वायु, आकाश तथा पृथिवी के अपने अपने गुण व धर्म हैं जिन्हें रूप, रस, स्पर्श, शब्द तथा गन्ध आदि नामों से जाना जाता है। यही गुण इन पदार्थों के धर्म भी कहलाते हैं। मनुष्य भी एक चेतन प्राणी है। इसकी आत्मा ज्ञान व अज्ञान का समन्वित रूप होता है। विद्याध्ययन व पुरुषार्थ से यह विद्या को बढ़ाते हैं। सत्य व असत्य का इनको बोध होता है। सत्य का आचरण करना ही वेद व वेदानुकूल ग्रन्थों अथवा वैदिक साहित्य में बताया गया है। मनुष्य का धर्म भी सत्य बोलना तथा सत्य कर्म करना होता है। कोई यह नहीं कह सकता कि किसी मनुष्य को झूठ बोलना चाहिये और झूठ वा असत्य पर आधारित काम करने चाहियें। मनुष्य को जो जो कार्य करने चाहियें, वही मनुष्य का धर्म है। इसे एक शब्द में यदि कहा जाये तो सत्य कर्मों का आचरण करना ही मनुष्य का धर्म होता है। इसमें मनुष्य की जन्मना जाति, स्थान व काल के अनुसार भेद नहीं होता। अतः संसार के सब मनुष्यों का धर्म एक ही है और वह है सत्य बोलना व सत्य व्यवहार करना।
हमें यह भी ज्ञान होना चाहिये कि संसार में इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली एक ही सत्ता है जिसे परमात्मा कहते हैं। उसी ने इस सृष्टि सहित सभी मनुष्य व इतर प्राणियों को बनाया है। उसका ज्ञान वेदाध्ययन सहित वेदों पर आधारित उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से होता है। परमात्मा के सत्य स्वरूप को जानना व उसका अज्ञानियों व अल्प बुद्धि के मनुष्यों में प्रचार करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म होता है। जो मनुष्य इसका पालन नहीं करते वह धार्मिक व सच्चे मनुष्य नहीं होते। सभी को ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने का भी प्रयत्न करते हुए उसका अपने परिवार व निकटवर्ती सामाजिक क्षेत्रों मे ंवेद वा सत्य का प्रचार करना आवश्यक होता है। परमात्मा का संक्षिप्त सत्यस्वरूप कैसा है इसका उत्तर है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। ईश्वर सब प्राणियों का जन्मदाता, पालक तथा अर्यमा व मृत्यु प्रदान करने वाला है। हमारा जन्म हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर होता है। हम अच्छे व बुरे जैसे कर्म करते हैं, उसी का फल भोगने के लिये उसके अनुरूप योनि में हमारा जन्म होता है। हमें जो सुख व दुःख मिलते हैं उसका आधार भी हमारे पूर्व व इस जन्म के कर्म ही हुआ करते हैं। इन सब बातों का ज्ञान वेद व वैदिक साहित्य से होता है। वेद सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से प्राप्त हुए हैं। इसकी प्रत्येक बात सत्य एवं विद्या पर आधारित है। सभी वेदोक्त विधेय कर्मों का करना धर्म होता है और निषिद्ध कर्मों का करना अधर्म होता है। इस रहस्य को जानकर मनुष्य को धर्म को इसके यथार्थ रूप में सेवन व पालन करना चाहिये जिससे उसे जन्म-जन्मान्तर में सुख व आत्मा की उन्नति के लाभ प्राप्त होंगे।
धर्म व अधर्म के सत्य स्वरूप पर विचार करना भी आवश्यक है। वह स्वरूप कैसा है? इसका उत्तर है कि धर्म का स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् जानना व पालन करना, पक्षपातरहित न्याय तथा सर्वहित करना होता है। हमारा ज्ञान सभी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित ओर वेदोक्त होना चाहिये। सब मनुष्यों के धर्म की मान्यतायें एक समान होती हैं, उनमें किसी प्रकार का अन्तर व परस्पर विरोध नहीं होता। यदि अन्तर व विरोध होता है तो जो सत्य होता है वही धर्म होता है और धर्म के विपरीत अधर्म होता है। सब प्राणियों पर दया करना, हिंसा न करना, उन्हें किसी प्रकार का दुःख न देना धर्म होता है और इसके विपरीत आचरण करना अधर्म होता है। हमें यह सिद्धान्त जानना चाहिये। अधर्म की परिभाषा करते हुए वेदों के एक ऋषि ने कहा है कि अधर्म का स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़ना और पक्षपात सहित अन्यायकारी होके बिना परीक्षा किये अपना ही हित करना हैै। अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरता आदि दोषयुक्त व अधर्म होने के कारण वेदविद्या के विरुद्ध हैं और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य हैं। जो धर्म की कसौटी को पूरा करें उन्हीं गुण, स्वभाव व कर्मों को संसार के सब मनुष्यों को मानना व पालन करना चाहिये। ऐसा करने पर ही वह धार्मिक कहे जा सकते हैं।
धर्म का ज्ञान हो जाने पर मनुष्यों को ईश्वर की सत्ता तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव पर ध्यान देना चाहिये। संसार में ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीन अनादि, नित्य, अविनाशी व अमर पदार्थ हैं। ईश्वर व जीव चेतन तथा प्रकृति जड़ है। परमात्मा जड़ प्रकृति से जीवों को सुख व दुःख भोग कराने के लिये सृष्टि तथा प्राणियों के शरीर बनाते हैं। अनादि काल से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय की प्रक्रिया चल रही है। ईश्वर अपने सुख के लिए कोई काम नहीं करता। उसका तो स्वरूप ही आनन्दस्वरूप है। वह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ विभिन्न पदार्थों को अपनी सन्तान के समान प्रिय जीवों के उपभोग के लिए बनाता है। अनादि काल से अब तक हमारे अनन्त बार भिन्न भिन्न योनियों में हमारे मनुष्य योनि के कर्मों के अनुसार जन्म हो चुके हैं। अनेक बार हमें मुक्ति भी प्राप्त हुई है। हमारा यह जन्म भी हमें परमात्मा ने दिया है। हमें हमारे माता, पिता, आचार्य, बन्धु, भगिनी, पत्नी तथा पुत्र-पुत्री आदि सब परमात्मा ने ही प्रदान किये हैं। सभी प्रकार के अन्न, ओषधियां तथा दुग्धादि पदार्थ भी परमात्मा ने बनाकर हमें दिये हैं। अतः हमारा कर्तव्य होता है कि हम उस परमात्मा का ध्यान करें, उसके उपकारों को स्मरण करें और इसके लिए उसका धन्यवाद करें। इस ध्यान व धन्यवाद की वैदिक सत्य तथा सुख लाभ कराने वाली प्रक्रिया व पद्धति को ही उपासना व उपासना पद्धति कहा जाता है। हम मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं न्यूनतम एक घण्टा ईश्वर का ध्यान करते हुए उसके उपकारों को स्मरण करना चाहिये और उसका धन्यवाद करना चाहिये। हमें संकल्प व प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हम किसी प्राणी की अकारण हानि नहीं करेंगे और न उन्हें दुःख देंगे। हमें ज्ञान व विद्या का प्रचार करना है। अज्ञान को दूर करना है। सबको अपना भ्राता तथा ईश्वर की सन्तान समझना है। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम ईश्वर के सच्चे उपासक व उसके शिष्य सिद्ध होते हैं। यही उपासना व उसकी पद्धति है।
लेख को समाप्त करने से पूर्व हम उपासना, सगुणोपासना, निर्गुणोपासना तथा जीव की मुक्ति पर भी प्रकाश डाल रहे हैं जिससे पाठको को लाभ होगा। उपासना अपनी आत्मा को ईश्वर के आनन्दमयस्वरूप में मग्न करने को कहते हैं। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शुद्ध, नित्य, आनन्दमय, सर्वव्यापक, एक, सनातन, सर्वकर्ता, सर्वाधार, सर्वस्वामी, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी, मंगलमय, सर्वानन्दप्रद, सर्वपिता, सब जगत् का रचनेवाला, न्यायकारी, दयालु, आदि सत्य गुणों से युक्त जानकर जो ईश्वर की उपासना करनी है उसे सगुणोपासना कहते हैं। निर्गुणोसना वह होती है जिसमें मनुष्य व उपासक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, संयोग, वियोग, हल्का, भारी, अविद्या, जन्म, मरण और दुःख आदि गुणों से रहित परमात्मा को जानकर ईश्वर की उपासना करते हैं। जीवात्मा की मुक्ति उसे कहते हैं जिससे सब मनुष्य व जीवात्मायें बुरे कामों और जन्म-मरणादि दुःखसागर से छूटकर, सुख व आनन्दमय परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख व आनन्द में ही रहती हैं। इन विषयों को विस्तार से जानने के लिए वेदाध्ययन सहित उपनिषद, दर्शन तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इससे मनुष्य सत्य धर्म तथा ईश्वर की उपासना व उसकी विधि को सूक्ष्मता से जान सकते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य