गीतिका/ग़ज़ल

गजल

अश्कों में बहते खाबों को किस्सों में नुमाया कर न सका

तुम मेरी ना हुई मगर दिल तुझको पराया कर न सका

दुनिया की अपनी बाजी है किस्मत की अपनी बाजीगरी
फिर भी दिल को जंजीरों में ये कैद खुदाया कर न सका

हर इक धड़कन पर काबिज है रहती है हर पल सीने में
तो क्याकि अपनी राहों में उसको हमसाया कर न
सका

ये दर्द अमानत है उसकी मैंने खो कर उसे कमाया है
बेनजीर इस दौलत को शिकवों में ज़ाया कर न सका

‘समर’ अंधेरों में ही तो कंदील मुनव्वर होते हैं
किरदार वो क्या जो गुर्बत में खुद को सरमाया कर न सका