पंख कुतर दिए
पंख कुतर दिए
मेरी बेटी थी वो लाडली,
बेटे जैसी पली वो थी,
आंगन की मेरी चिड़िया थी,
सारे दिन घर को महकाती थी ,
बड़ी होती गई वो ,
सपनें एक थे उसके मेरे ,
उसको दी शिक्षा मैंने,
बेटे जैसी बहुत अच्छी,
पैरों पर खड़ा उसको किया,
अरमान पूरे किए उसके ,
ख्वाब मेरे भी तो थे वो ,
खुशी होती थी बहुत ,
जब वो बढ़ती मंजिल को ,
लएक दिन उड़ना चाहा था ,
समाज मे रहता था मैं ,
समझा कर उसको ,
करवा दिया ब्याह उसका,
बोला” तेरे ख्वाब अब करना पुरे
उड़ना तुम खुद की उड़ान ”
मेरी हाँ, इच्छा को दिया उसने सम्मान,
विदा हो गई बाबुल के आंगन से
जिसकी चहक आज भी है आँगन में
नए घर गई चिड़िया मेरी प्यारी,
एक ही दिन में हो गई बड़ी सयानी,
सारे रिश्ते , जिम्मेदारी में वो,
भुल गई उसके ख्वाब ,
निकलते गए दिन ,
जिम्मेदारी बढ़ती गई ,
उसमे वो रमति गई ,
ख्वाब दफन हो गए उसके ,
चहक कम हो गई ,
पंख उसके कुतर गए ,
शायद मैं था जिम्मेदार ,
हालात थे जिम्मेदार,
समाज था जिम्मेदार ,
कौन था या है जिम्मेदार
डॉ सारिका औदिच्य